Central Desk पिछले करीब 13 वर्षों से अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे सहारा समूह के लिए मुश्किलें कम नहीं हो रहे हैं. पिछले दिनों केंद्रीय सहकारिता मंत्री अमित शाह ने सीआरसीएस- सहारा पोर्टल लांच कर यह तो स्पष्ट कर दिया है कि सहारा समूह की चार कंपनियों में निवेशकों के पैसे सुरक्षित हैं, मगर जिस तरह से पोर्टल से पैसे प्राप्त करने फार्मूला तैयार किया गया है उससे निवेशकों को अभी लंबा इंतजार करना पड़ सकता है. ये भी संभव है कि 2024 का ये चुनावी मुद्दा बने. वैसे जानकार इसे 2024 का चुनावी जुमला भी मान रहे हैं. जानकार इसे केंद्र सरकार के लिए आत्मघाती निर्णय भी मान रहे हैं.
क्या है सीआरसीएस- सहारा पोर्टल की पेचीदगियां
सीआरसीएस- सहारा पोर्टल लांचिंग से पूर्व देश भर में फैले सहारा के करीब 13 करोड़ निवेशक और 12 लाख एजेंट के काफी आशा भरी निगाह से भारत सरकार और सहकारिता मंत्रालय की ओर टकटकी लगाए बैठे थे. जैसे ही केंद्रीय सहकारिता मंत्री ने पोर्टल की लांचिंग की उसके बाद उसकी बारीकियों से देश की जनता को अवगत कराया, निवेशकों में मायूसी छा गई. एक झटके में राहत की उम्मीद लगाए बैठे निवेशक फिर से सरकार और सुप्रीम कोर्ट की ओर देखने लगे. इतना जरूर हुआ कि सहारा- सेबी विवाद पर सरकार के स्तर से केंद्रीय सहकारिता मंत्री अमित शाह ने बड़ी बात कही. उन्होंने माना कि ऐसे मामलों में सरकारी एजेंसियां कार्रवाई करती है, मगर निवेशकों के हितों का ध्यान नहीं रखा जाता है. मतलब साफ हो गया कि सहारा मामले में एजेंसी यानी सेबी है. मतलब सहारा- सेबी विवाद में सेबी गलत है. चूंकि सेबी सरकारी एजेंसी है इसलिए सरकार के स्तर पर उसे सीधे कटघरे में खड़ा नहीं किया जा सकता है मगर सहारा- सेबी विवाद में जो कुछ भी हो रहा है उसे देश देख रहा है. अब बात करें पोर्टल की पेचीदगियों की तो यहां ये समझना जरूरी है कि सहारा में ज्यादातर निवेशक निम्न एवं मध्यम वर्ग से आते हैं. 10 फ़ीसदी निवेशक ही संभ्रांत एवं पढ़े- लिखे लोग हैं. पोर्टल पर आवेदन अपलोडिंग की प्रक्रिया जटिल होने की वजह से सीएससी, प्रज्ञा केंद्र एवं साइबर कैफे वालों का मनमानी बढ़ेगा इसके लिए उन्हें अतिरिक्त शुल्क भी चुकाने पड़ेंगे. पोर्टल के जरिये वैसे निवेशक ही भुगतान प्राप्त कर सकेंगे जिनकी परिपक्वता राशि दस हजार रुपये या उससे कम होगी. उससे अधिक की राशि पर विचार नहीं किए जाएंगे. इसकी प्रक्रिया 45 दिन यानी डेढ़ महीने की होगी. मतलब सितंबर मध्य तक निवेशकों का भुगतान संभव हो सकेगा. यानी 2024 आम चुनाव की रणभेरी बजनेवाली होगी. यूं कहें तो सहारा- सेबी प्रकरण को मोदी सरकार चुनावी मुद्दा बनाकर जनता का सहानुभूति लेने का काम करेगी.
निशाने पर अमित शाह और प्रधानमंत्री
पोर्टल लांचिंग होते ही निवेशकों के निशाने पर केंद्रीय सहकारिता मंत्री एवं प्रधानमंत्री आ गए हैं सोशल मीडिया पर दोनों को खूब ट्रोल किया जा रहा है. निवेशक इसे खुद के साथ छल मान रहे हैं. कुछ निवेशक इसे केंद्र सरकार की साजिश बता रहे हैं, तो कुछ निवेशक 2024 का चुनावी जुमला बता रहे हैं.
आखिर कब तक तड़पेंगे सहारा के निवेशक ?
पिछले करीब 13 साल से गाढ़ी कमाई पाने की आस लिए बैठे सहारा के करीब 13 करोड़ निवेशक आजतक सर्वोच्च न्यायालय और सरकार की ओर टकटकी भरी निगाह लगाए बैठे हैं. निवेशकों को अभी भी सरकार की ओर से राहत की उम्मीद बनी हुई है. हालांकि पोर्टल लॉन्चिंग के क्रम में केंद्रीय सहकारिता मंत्री अमित शाह ने सहारा के निवेशकों को भरोसा दिलाया है, कि जैसे-जैसे सहकारिता मंत्रालय के पास पैसे आएंगे वैसे- वैसे निवेशकों को पैसे लौटाए जाएंगे. बता दें कि पिछले दिनों सरकार के अनुरोध पर सुप्रीम कोर्ट ने सहारा- सेबी अकाउंट से 5000 करोड़ रुपए मंत्रालय को देने का निर्देश दिया है, जबकि करीब एक लाख करोड रुपए की देनदारी सहारा समूह पर बनती है. जबकि सहारा- सेबी अकाउंट में 25 हजार करोड़ रुपए जमा होने का दावा समूह की ओर से किया जाता रहा है. ऐसे में सहारा के निवेशकों को और कबतक इंतजार करना पड़ेगा यह चिंता का विषय है.
सेबी की सनक या सरकार की सरपरस्ती
सहारा- सेबी विवाद 2004 में शुरू हुआ था, 2008 आते- आते विवाद इतना गहरा गया कि सहारा प्रमुख को अपने दो डायरेक्टर्स के साथ तिहाड़ जेल की हवा भी खानी पड़ी. तत्कालीन यूपीए सरकार के वक्त शुरू हुए विवाद से सहारा समूह अर्श से सीधे फर्श तक पहुंच गया है. 45 साल पहले फर्श से शुरू होकर सहार का सफर अर्श तक पहुंचने के बाद आज पूरी तरह से तबाह हो चुका है. सहारा पर आरोप है कि उसके सारे निवेशक फर्जी थे और गलत तरीके से समूह ने मार्केट से धन उगाही किया है, जिसे सेबी आज तक साबित कर पाने में नाकाम रही है. तो क्या इसके पीछे राजनीतिक सरपरस्ती है या सहारा समूह के साथ सरकार एवं सरकारी तंत्र की निजी अदावत, ये समझ से परे है. इस पूरे प्रकरण में कार्यपालिका, विधायिका, न्यायपालिका और पत्रकारिता तीनों की भूमिका कटघरे में रही है. किसी ने यह नहीं सोचा कि बेरोजगारी के दौर में 12 लाख लोग एक झटके में बेरोजगार हो चुके हैं. देश के 13 करोड़ से भी ज्यादा निवेशक गाढ़ी कमाई डूबने की चिंता से मरे जा रहे हैं. जिस मुद्दे को देश का ज्वलंत मुद्दा होना चाहिए उस मुद्दे पर कोई बोलनेवाला नहीं. सड़क से लेकर सदन तक संग्राम मचा हुआ है और कार्यपालिका, न्यायपालिका, विधायिका और पत्रकारिता चुप्पी साधे हुए है.