झारखंड बने 21 साल बीत चुके हैं सरकारें आयीं- गयीं. इन 21 सालों में झारखंड में बहुत कुछ बदलते देखा. सियासत के गलियारों से लेकर लाल आतंक का तांडव तक झारखंडियों ने देखा है. हर सियासत के केंद्र बिंदु यहां के आदिवासी और मूलवासी रहे हैं. आदिवासियों और मूल वासियों के नाम पर सियासतदान न जाने कितनी बार झारखंड को लूट चुके हैं. जिन आदिवासियों और मूल वासियों के दम पर राज्य के सत्ता की बिसात बिछी, आज उन आदिवासियों और मूल वासियों की जमीनी सच्चाई जान आपके रोंगटे खड़े हो जाएंगे.
पहले आप इन तस्वीरों को देखिए फिर हम आपको बताएंगे यहां की जमीनी हकीकत
देखा आपने यह तस्वीरें हैं झारखंड की आर्थिक राजधानी जमशेदपुर के ग्रामीण इलाके की. ये तस्वीर घाटशिला विधानसभा क्षेत्र के गुड़ाबांधा प्रखंड क्षेत्र के सबसे बीहड़ और दुर्गम गांव मटियालडीह का है. कभी नक्सलवाद के गढ़ के रूप में जाने जानेवाले गुड़ाबांधा क्षेत्र से आज नक्सलवाद समाप्त हो चुका है, मगर विकास कहां है. इन तस्वीरों को देखकर समझिए. महज एक किलोमीटर की सड़क बनाने के लिए भी सरकार, प्रशासन और स्थानीय जनप्रतिनिधियों के पास फंड नहीं है. नतीजा आप साफ़ देख सकते हैं. किस तरह डेढ़ सौ की आबादी वाले इस गांव के लोग नारकीय जिंदगी जीने को विवश है. ये आदिवासी- मूलवासी ही तो हैं… फिर किसके लिए झारखंड और कैसी सियासत !
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ग्रामीणों के अनुसार अविभाजित बिहार के समय से ही गांव के लोग कच्ची सड़क से ही आना-जाना करते हैं. सबसे अधिक परेशानी बरसात के दिनों में होती है. सड़क पर फिसलन और दलदली मिट्टी होने के कारण काफी परेशानियों का सामना करना पड़ता है. सबसे अधिक परेशानी तब होती है, जब गांव में कोई बीमार पड़ जाता है. उसे खाट पर टांगकर मुख्य सड़क तक लाना होता है. 2 दिन पूर्व एक गर्भवती महिला को खाट पर ढोकर मुख्य सड़क तक पहुंचाया गया था. गांव में एक बीमार महिला है जिसे हर हफ्ते इलाज के लिए अस्पताल ले जाना पड़ता है. इसके लिए खाट के सहारे ही मुख्य सड़क तक पहुंचाना होता है. कई बार जनप्रतिनिधियों के पास फरियाद भी लगाई, लेकिन सभी चुनावी वायदे बनकर रह गए. चुनाव जीतने के बाद दोबारा गांव की तरफ झांकने भी नहीं आए. गांव के भीतर पीसी सड़क जरूर है, लेकिन गांव से मुख्य सड़क तक पहुंचने के लिए कच्चे और दलदली सड़क से ही होकर गुजारना पड़ता है. कई बार फिसल कर ग्रामीण घायल भी हो चुके हैं.
स्थानीय युवक
निश्चित तौर पर बदलते झारखंड की यह तस्वीर आपको विचलित कर सकती है, लेकिन सत्ता के शीर्ष पर बैठे सियासत दान, प्रशासनिक महकमा और जनप्रतिनिधियों के पास इतना वक्त भी नहीं, कि कभी इन आदिवासियों और मूल वासियों की सुध ली जाए. ग्रामीणों के दर्द को इस तरह भी समझा जा सकता है कि आजादी के 70 दशक बीत जाने के बाद भी अंत्योदय का सपना अधूरा है. दावे लाख हो रहे हैं, लेकिन जमीनी सच्चाई यही है. गुड़ाबांधा का मटियालडीह गांव तो एक नमूना है. ऐसे सैकड़ों गांव झारखंड के कई हिस्सों में मिल जाएंगे. जहां जरूरी बुनियादी सुविधाएं आज भी कोसों दूर है. फिर कैसा विकास… कैसी सियासत ! इस पर चिंतन करने की जरूरत है. चाहे आदिवासी हों, मूलवासी हों या विस्थापित, अल्पसंख्यक, बहुसंख्यक या कोई और…..
स्थानीय युवक