DESK REPORT देश की अग्रणी बीमा कंपनी एलआईसी के आईपीओ लांचिंग के लिए सत्ता और सत्ता के सह पर सिस्टम ने न्यायपालिका के सहयोग से जिस सहारा के सल्तनत को तबाह कर दिया, आज वही एलआईसी निवेशकों को नुकसान पहुंचाने के मामले में एशिया की दूसरी सबसे बड़ी कंपनी बन गई है. क्या दोनों कंपनियों को तबाह करने के पीछे कोई गहरी साजिश रची जा रही है !
एक रिपोर्ट
एक बड़े राष्ट्रीय अखबार के फ्रंट पेज पर यह खबर प्रमुखता से प्रकाशित की गई है, जिसमें शीर्षक
एलआईसी बनी नुकसान पहुंचाने वाली एशिया की दूसरी कंपनी
के तहत दावा किया गया है कि एलआईसी के मार्केट कैप में इस साल अब तक 17 अरब डॉलर यानी 1.33 लाख करोड़ रुपए की कमी आई है. इस लिहाज से देश की सबसे बड़ी बीमा कंपनी का आईपीओ पूरे एशिया में निवेशकों, को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाने में दूसरे पायदान पर पहुंच गया है. शेयर बाजारों में एलआईसी की लिस्टिंग 17 मई को हुई थी. तब से अब तक इसके शेयर में 29% गिरावट आ चुकी है. इस मामले में 30% से कुछ ज्यादा गिरावट के साथ दक्षिण कोरिया की कंपनी एलजी एनर्जी सॉल्यूशन का आईपीओ पहले पायदान पर है.
मतलब साफ हो गया कि सरकार सिस्टम (SEBI) के जरिए न्यायपालिका (Judiciary) का सहारा लेकर सहारा समूह के आईपीओ को साजिश के तहत गलत साबित कर कानूनी दांव- पेंच में उलझाकर, न केवल देश के 12 लाख लोगों को बेरोजगार किया, बल्कि करोड़ों निवेशकों को गाढ़ी कमाई के लिए सड़क पर ला दिया. इसके लिए जिम्मवार कौन है ?
ऐसे शुरू हुआ सहारा को बर्बाद करने का साजिश
दरअसल साल 2007- 08 के आसपास सहारा समूह सहारा प्राइम सिटी के नाम से आईपीओ लाने के लिए कंपनी को सूचीबद्ध कराने का आवेदन किया था. जिसे सेबी यह कहते हुए रोक देता है कि इसमें हमारी कोई भूमिका नहीं इसके लिए आरोसी अधिकृत है. फिर अचानक सेबी मामले में कूद पड़ता है और सहारा के सारे निवेशकों को फर्जी बताते हुए इलाहाबाद हाईकोर्ट में चुनौती देता है. इलाहाबाद हाईकोर्ट सेबी की याचिका को खारिज कर फैसला सहारा के पक्ष में दे देता है. सेबी सुप्रीम कोर्ट पहुंच जाता है, जहां सुप्रीम कोर्ट सहारा को अपना पक्ष रखने के लिए तलब करती है, मगर सियासी रसूख के बल पर सहारा के मुखिया यानी सुब्रत रॉय अपना पक्ष रखने नहीं पहुंचते हैं. जिसके बाद सुप्रीम कोर्ट द्वारा उन्हें गिरफ्तार कर लाने का हुक्म देती है. यहीं से शुरू हो गया सहारा के पतन का सिलसिला. हालांकि सहारा मामलों के जानकार इसके पीछे सहारा प्रमुख द्वारा दिए गए उस बयान को मुख्य कारण मानते हैं, जिसमें सहारा चीफ सुब्रत रॉय द्वारा कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी के विदेशी मूल होने के कारण प्रधानमंत्री ना बनाए जाने की वकालत की थी. माना जाता है कि यूपीए- एक के समय से ही तत्कालीन वित्त मंत्री पी चिदंबरम को एन- केन- प्रकारेण सहारा को दबोचने की जिम्मेदारी दी गई थी और यूपीए- 2 आते- आते चिदंबरम ने वित्त मंत्री रहते इसे पूरा कर दिया. हालांकि इसके कोई प्रमाणिक साक्ष्य नहीं है.
दूसरा पहलू
वैसे इस मामले का दूसरा पहलू यह भी माना जाता है कि सरकार चाहती थी की एलआईसी कि आईपीओ को मंजूरी मिले एलआईसी ने भी उसी वक्त आईपीओ के लिए आवेदन किया, मगर आईपीओ के लिए बाजार नियामक सेबी के पास पेश किए गए दस्तावेजों के मुताबिक एलआईसी पर प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष कर के 74,894.6 करोड़ रुपये के कुल 63 मामले चल रहे थे. इनमें बीमा कंपनी पर प्रत्यक्ष कर के 37 मामलों में 72,762.3 करोड़ और 26 अप्रत्यक्ष कर मामलों में 2,132.3 करोड़ रुपये बकाया था, जिनकी वसूली होनी थी. आईपीओ (आरंभिक सार्वजनिक निर्गम) लाने की तैयारियों में जुटी देश की सबसे बड़ी बीमा कंपनी पर आयकर विभाग का करीब 75,000 करोड़ रुपये बकाया था. खास बात यह थी कि भारतीय जीवन बीमा निगम (एलआईसी) टैक्स की देनदारियां चुकाने के लिए अपने फंड का इस्तेमाल नहीं करना चाहती थी. आईपीओ के लिए बाजार नियामक सेबी के पास पेश किए गए दस्तावेजों के मुताबिक, एलआईसी पर प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष कर के 74,894.6 करोड़ रुपये के कुल 63 मामले चल रहे हैं. इनमें बीमा कंपनी पर प्रत्यक्ष कर के 37 मामलों में 72,762.3 करोड़ और 26 अप्रत्यक्ष कर मामलों में 2,132.3 करोड़ रुपये बकाया है, जिनकी वसूली होनी है. इस तरह, कंपनी पर आयकर विभाग का कुल 74,894.4 करोड़ रुपये का टैक्स बकाया निकल रहा है. यह देश की किसी भी एक कंपनी पर सबसे ज्यादा टैक्स बकाया है. वैसे दस्तावेज में एलआईसी ने दो टूक कहा है कि वह बकाया टैक्स का भुगतान अपने फंड से नहीं करेगी क्योंकि कई मामलों में कोर्ट की ओर से आए फैसले सही नहीं हैं. वह इनके खिलाफ आगे भी अपील करेगी. बावजूद इसके एलआईसी को सूचीबद्ध करना और आयकर डिफॉल्टर कंपनी के आईपीओ को मंजूरी देना कहीं न कहीं नियामक और सरकार की मिलीभगत दर्शाती है. इससे साफ पता चलता है कि सरकार और नियामक ने निवेशकों के हितों को ध्यान में नहीं रखा और अपने फायदे के लिए देश की बीमा और नन बैंकिंग सेक्टर की दो- दो सबसे पुरानी कंपनी को साजिश के तहत कानूनी उलझनों में फंसाकर निवेशकों को सड़क पर ला दिया. सहारा अखबारों में विज्ञापनों के जरिये चीख- चीखकर अपनी बेगुनाही का सबूत देता रहा, मगर सत्ता, सिस्टम, न्यायपालिका और मीडिया मूकदर्शक बन सहारा की बर्बादी देखती रही. नतीजा आज सहारा के 12 लाख एजेंट बेरोजगार हो चुके, करोड़ों निवेशक अपनी गाढ़ी कमाई के लिए सड़क पर उतर चुकी है देश के कोने- कोने में फैले सहारा के एजेंट और निवेशक अब सरकार, सिस्टम और न्यायपालिका के खिलाफ आंदोलित है जिसका नजारा लखनऊ और राजस्थान में दिख चुका है. वहीं एलआईसी के भी निवेशकों पर खतरा मंडराने लगा है. जिस तामझाम के साथ एलआईसी के आईपीओ की लांचिंग हुई और एक महीने अंदर ही इस कंपनी के शेयर में 29% की गिरावट देखी जा रही है. साथ ही निवेशकों नुकसान पहुंचानेवाली एशिया की दूसरी सबसे बड़ी कंपनी के रूप में चिन्हित होना कहीं न कहीं एलआईसी और उसके निवेशकों के लिए खतरे की घण्टी है.
देर से मिला इंसाफ भी नाइंसाफी के दायरे में आता है
सुप्रीम कोर्ट का मानना है कि देर से मिला इंसाफ भी नाइंसाफी के दायरे में आता है. ऐसे में पिछले 10 सालों से इंसाफ के लिए लड़ रहे सहारा समूह को चाहे जब इंसाफ मिले उसकी भी समीक्षा जरूरी है और उसके लिए जिम्मेदार कारकों की जिम्मेदारी भी तय होनी चाहिए. क्योंकि अब सहारा वापसी करेगी शायद यह संभव नहीं, क्योंकि सहारा का साम्राज्य और आंतरिक क्षमता (फील्ड फोर्स) बिखर चुका है. उसके लिए उसे बूस्टर डोज की जरूरत पड़ेगी जो न सरकार दे सकती है न सिस्टम न न्यायपालिका. सुप्रीम कोर्ट को कम से कम अब भी सहारा- सेबी मामले की सुनवाई करते हुए सहारा के 25 हजार करोड़ वापसी का मार्ग प्रशस्त करानी चाहिए, ताकि निवेशकों को कुछ हद तक राहत मिल सके और देश में संभावित बड़े आंदोलन की संभावना को कम किया जा सके. वैसे सवाल यह भी उठ रहे हैं कि आखिर सड़क से लेकर सदन तक हर ओर सहारा के निवेशकों का कोहराम मचा हुआ है, देश का शायद ही कोई ऐसा मंत्री सांसद या विधायक होगा जहां सहारा ने अपनी फरियाद नहीं लगाई, मगर न्यायपालिका इस मामले में आखिर मौन क्यों है ! क्यों देश के बड़े-बड़े मीडिया संस्थान इस सच्चाई को दुनिया के सामने लाने से कतरा रहे हैं !
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