ब्यूरो रिपोर्ट: इसमें कोई शक नहीं है कि झारखंड भाजपा की देन है. झारखंड अलग राज्य गठन के साथ ही बीजेपी को यहां की सत्ता विरासत में मिली. बाबूलाल मरांडी पहले मुख्यमंत्री बने. दुर्भाग्य देखिये कुर्सी मिलते ही बाबूलाल मरांडी ने ही सबसे पहले यहां डोमेसाइल रूपी नफरत का बीज बोया था. बाहरी- भीतरी की आग ऐसी लगी कि समूचा झारखंड डोमेसाइल की आग में झुलसने लगा. उसी का नतीजा है कि आज झारखंड गठन के 23 साल हो चले हैं, कभी बाहरी- भीतरी, कभी आदिवासी- मूलवासी, तो कभी खतियानी आंदोलन की आग में झुलस रहा है. उधर डोमेसाइल आंदोलन की धार देख आनन- फानन में आलाकमान ने बाबूलाल मरांडी को गद्दी से उतारा और कल्याण मंत्री रहे अर्जुन मुंडा के हाथों में झारखंड की कमान सौंपी.
उधर गद्दी छिनते ही बाबूलाल मरांडी ने बगावत का रुख अख्तियार किया, सालों मुंह लटकाए भरपेट बीजेपी को कोसा. यहां तक कह डाला कि कुतुबमीनार से कूदना पसंद करूंगा मगर दुबारा भाजपा में नहीं जाऊंगा. अपनी अलग पार्टी झारखंड विकास मोर्चा बनाई. सालों अस्तित्व की लड़ाई लड़ते रहे अंत में पुनः घर वापसी की. अब फिर से पूरे जोरशोर से झारखंड में कमजोर होते पार्टी को धार देने में जुटे हैं, मगर क्या बाबूलाल मरांडी में वो जज्बा और जुनून बचा है, जो पार्टी के रूठे कुनबे को फिर से मुख्यधारा से जोड़ सकें ? शायद नहीं, क्योंकि झारखंड भाजपा दो धड़ों में बंट चुका है. अब बाबूलाल मरांडी खुद एक तीसरे धड़े के रूप में देखे जा रहे हैं.
दरअसल झारखंड भाजपा के पतन की पटकथा लेखन 2014 के विधानसभा चुनाव से शुरू हुआ. जब मुख्यमंत्री रहते अर्जुन मुंडा को अपने घर मे मात खानी पड़ी. जानकर बताते हैं कि इसके पीछे अपनों ने ही भीतराघात किया था. तब डिप्टी सीएम रघुवर दास हुआ करते थे. केंद्र में मोदी सरकार बनते ही रघुवर दास मोदी- शाह के जातीय समीकरण में फिट बैठ गए. अंदरखाने की माने तो अमित शाह अर्जुन मुंडा को पसंद नहीं करते थे. क्योंकि मुख्यमंत्री रहते अर्जुन मुंडा ने उन्हें भाव नहीं दिया था. इस बीच रघुवर दास ने संघ को भरोसे में लेकर अर्जुन मुंडा के खिलाफ खरसावां विधानसभा के कार्यकर्ताओं को अपने खेमे में मिला लिया. इस बात की भनक अर्जुन मुंडा को अंतिम क्षणों में हुई.
मुंडा राज्य के अन्य विधानसभा सीटों में पार्टी के प्रत्याशियों की जमीन मजबूत करने में लगे रहे, खरसावां की कमान उनकी पत्नी मीरा मुंडा ने संभाल रखा था, मगर वे पार्टी में भीतराघात से अंजान रहे. इसका खामियाजा उन्हें खरसावां सीट गंवाकर चुकानी पड़ी.
हालांकि पार्टी 2014 में पहली बार पूर्ण बहुमत में थी. कई विधायक अर्जुन मुंडा के लिए अपनी सीट छोड़ने को तैयार थे, मगर अर्जुन मुंडा इसके लिए तैयार नहीं थे. उन्होंने कहा था कि तीन बार हमने राज्य में गठबंधन की सरकार चलाई और राज्य को विकास के पथ पर लाकर खड़ा कर दिया, जनता का भरपूर साथ मिला, जिसका परिणाम आज राज्य में पार्टी पूर्ण बहुमत से सरकार बनाने जा रही है. हां इसका मुझे अफसोस है कि मैं उसका हिस्सा नहीं होऊंगा. उसके बाद राज्य को रघुवर दास के रूप में मुख्यमंत्री मिला.
भाजपा यही से दो खेमों में बंट गया. सत्तासीन होते ही रघुवर खेमा सत्ता सुख में ऐसा डूबा कि राज्य के अधिकारी से लेकर पार्टी का जमीनी कार्यकर्ता कराह उठा. आलाकमान रघुवर दास की गलतियों को नजरअंदाज करती रही. सबकुछ जानते हुए भी पार्टी का शीर्ष नेतृत्व खामोश रहा. इस बीच 2019 आते- आते सरयू राय बागी हो गए. सरकार में मंत्री रहते रघुवर दास के खिलाफ मोर्चा खोल दिया. यहां तक कि उन्होंने रघुवर दास को जेल भिजवाने की धमकी दे डाली.
आलाकमान यहां भी नहीं चेता और सरयू राय का टिकट काट दिया, यहीं से राज्य में भाजपा का पतन शुरू हो गया. इधर सरयू राय ने अपनी सीट छोड़ रघुवर दास के पारंपरिक सीट जमशेपुर पूर्वी से निर्दलीय चुनाव लड़ने की घोषण कर सबको चौंका दिया. सरयू राय ने खुले मंच से मोदी- शाह को चुनौती देते हुए रघुवर दास को भारी मतों से पराजित कर दिया. सरयू राय के बगावत और आजसू से दूरी ने भाजपा को सत्ता से इतना दूर कर दिया कि पूरे चार साल बीजेपी सत्ता पाने के लिए हर मुमकिन प्रयास करती रही मगर वर्तमान हेमंत सोरेन सरकार को डिगा पाने में विफल रही.
इस दौरान ईडी, सीबीआई से लेकर विधायकों के खरीद- फरोख्त का भी प्रयास किया, मगर हाथ कुछ भी न लगा. अंत में बाबूलाल मरांडी को कुतुबमीनार से उतारकर शुद्धिकरण कराया गया और उन्हें प्रदेश अध्यक्ष की कमान सौंपी गई. ऐसे समय में मरांडी को प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया है जब राज्य में बीजेपी का कुनबा पूरी तरह से ध्वस्त हो चुका है. पार्टी मेरा बूथ सबसे मजबूत होने का दावा करती है, आलम ये है कि हर बूथ पर आज की तारीख में कार्यकर्ता दिग्भ्रमित है.
बाबूलाल मरांडी के कंधे पर बड़ी जिम्मेदारी सौंपी गई है, मगर रघुवर दास या अर्जुन मुंडा को साधना उनके बूते है ऐसा लग नहीं रहा है. रघुवर दास पर आज भी मोदी- शाह और जेपी नड्डा की कृपा बरस रही है. इससे साफ जाहिर हो रहा है कि पार्टी आलाकमान झारखंड को लेकर गंभीर नहीं है.
वैसे अभी 2024 के लोकसभा चुनाव में मरांडी की पहली अग्निपरीक्षा होगी. उसके बाद हो सकता है आलाकमान को अपना स्ट्रेटजी बदलनी पड़े और अर्जुन मुंडा को वापस राज्य की बागडोर सौंपनी पड़े, क्योंकि अर्जुन के हाथों ही झारखंड के जीत का गांडीव है, जो आजसू के साथ सरयू राय और अन्य बागियों को एकसाथ साधने की क्षमता रखता है.
वैसे 2014 के बाद अर्जुन मुंडा ने खुद को केंद्र की राजनीति में सक्रिय करते हुए 2019 में खूंटी लोकसभा सीट से टिकट हासिल किया और जिस चुनाव में भाजपा के उम्मीदवार लाखों- लाख के अंतर से चुनाव जीते उस चुनाव में अर्जुन मुंडा सरीखे नेता बेहद मामूली अंतर से चुनाव जीतकर सदन में पहुंचे. मोदी- शाह के न चाहते हुए भी झारखंड कोटे से आदिवासी चेहरा के रूप में उन्हें मंत्री बनाना पड़ा. राजनीति के मंजे खिलाड़ी अर्जुन मुंडा ने सबकुछ खामोशी से स्वीकार किया और केंद्र की राजनीति में खुद को फिट बैठा लिया.
आगे यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या बीजेपी आलाकमान झारखंड की डूबती नैया की पतवार अर्जुन मुंडा को सौंपती है या पार्टी को समूल झारखंड के पृष्टभूमि से गायब कर देती है. भले रघुवर दास आज पार्टी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हैं, मगर बगैर अर्जुन मुंडा और सरयू राय को साधे बीजेपी 2024 की बैतरनी पार पा ले फिलहाल ऐसा लग नहीं रहा है. क्योंकि सरयू राय एकबार फिर से रघुवर दास के खिलाफ हमलावर हैं और पूरे राज्य में घूम- घूमकर बीजेपी शीर्ष नेतृत्व को रघुवर के हरकतों पर लगाम लगाने की नसीहत दे रहे हैं.