DESK झारखण्ड की वर्तमान हेमंत सोरेन सरकार खुद को आदिवासियों की हितैषी सरकार होने का दावा करती है, मगर हैरानी की बात ये है कि पिछले पांच साल में हेमंत सोरेन सरकार ट्रायबल एडवाइजरी कमेटी (Tribal Advisory Commitee) की एक भी बैठक करा पाने में विफल रही. जबकि पिछली रघुवर सरकार के कार्यकाल में दो बार टीएसी की बैठक हुई थी जिसका विपक्ष में रहते हेमंत सोरेन ने विरोध किया था. मगर सत्ता पर काबिज होने के बाद हेमंत सोरेन सरकार ने न तो टीएसी का गठन कराया न इसकी एक भी बैठक हुई.
यदि चंपाई सोरेन को टीएसी का अध्यक्ष बना देते तो चंपाई नहीं होते नाराज
आज पूर्व मुख्यमंत्री और झामुमो के सबसे वरिष्ठ नेताओं में एक चंपाई सोरेन ने पार्टी और संगठन पर खुद को अपमानित करने का आरोप लगाकर पार्टी और संगठन से खुद को अलग कर लिया है. उन्होंने बीजेपी ज्वाइन कर लिया है. सत्ताधारी दल उन्हें मौकापारस्त और सत्तालोभी राजनेता करार दे रहे हैं. उनकी तुलना रामायण के विभीषण से कर रहे हैं. जबकि चंपाई सोरेन अपने चार दशक की राजनीति में कभी सत्तालोलुप नहीं रहे. न कभी अपने परिवार के सदस्यों के लिए पार्टी में मुखर होकर राजनितिक हिस्सेदारी मांगी जबकि वे ऐसा कर सकते थे. यहां तक कि उन्होंने पार्टी छोड़ने से पहले ही इसका ऐलान कर दिया कि वे वहां से अकेले निकले हैं वहां के एक ईट भी नहीं लेंगे क्योंकि उस संगठन को मैंने अपने ख़ून- पसीने से सींचा है और अपने परिवार की चिंता किए बगैर झामुमो और गुरूजी को प्राथमिकता दी है. बावजूद इसके सत्ताधारी दल के नेताओं को उनकी ईमानदारी हजम नहीं हो रही है. राजनितिक जानकर मानते हैं कि यदि चंपाई सोरेन को मुख्यमंत्री पद से हटाया गया तो पहले उनसे विचार करनी चाहिए थी. उनके लिए सम्मानजनक पद का सृजन करना चाहिए था. इसके लिए दो विकल्प पार्टी के पास थे. पहला उन्हें पार्टी का मुखिया चुना जाना चाहिए था, दूसरा उन्हें संवैधानिक पद पर बिठाना चाहिए था इसके लिए टीएसी का अध्यक्ष पद था जो उनकी नाराजगी को पाट सकता था, मगर सत्ता हथियाने के चक्कर में हेमंत सोरेन भारी भूल कर बैठे और चंपाई रूपी कोहिनूर को गंवा बैठे. वैसे अब काफी देर हो चुकी है चंपाई सोरेन अब “राम” के “हनुमान” बनकर झामुमो की “लंका” में आग लगाने निकल चुके हैं. चंपाई के सभाओं में जुटने वाली भीड़ यह दर्शा रहा है कि आगामी विधानसभा चुनाव में ये “वानरी सेना” झारखंड फतह को तैयार है.
हेमंत सोरेन ने गंवा दिया मौका
लोकसभा चुनाव से ठीक पहले हेमंत सोरेन को जमीन घोटाला मामले में जेल जाना पड़ा. उसके बाद चंपाई सोरेन ने सत्ता और पार्टी दोनों को संभाला. अपने पांच महीने के छोटे कार्यकाल में न केवल लोकसभा चुनाव में “इंडिया” महागठबंधन को अप्रत्याशित जीत दिलाई बल्कि आदिवासी जनमानस में हेमंत सोरेन और सोरेन परिवार के लिए विशेष सहानुभूति भी पैदा किया. उन्होंने ही कल्पना सोरेन के लिए राजनितिक पृष्ठभूमि तैयार किया और उन्हें विधायक बनाने में पूरी ताकत झोंक दी. मगर जेल से बाहर निकलते ही हेमंत सोरेन ने जनता से मिल रहे सहानुभूति को सत्ता के मोह में गंवा दिया और अचानक से मुख्यमंत्री चंपाई सोरेन के संवैधानिक अधिकारों को हाईजैक कर लिया. साधारण ब्यूरोक्रेट सुनील श्रीवास्तव के आदेश से मुख्यमंत्री के सारे कार्यक्रम रद्द हो गए. हेमंत सोरेन के आदेश से आनन- फानन में विधायक दल की बैठक बुला ली गई. उस बैठक में “इंडिया” गठबंधन के तमाम बड़े नेता भी मौजूद रहे किसी ने भी चंपाई के अपमान पर मुंह नहीं खोला. बैठक में हेमंत सोरेन को नेता चुना गया और चंपाई सोरेन को इस्तीफा देने पर मजबूर किया गया इसे पूरे झारखण्ड ने देखा और महसूस किया. तब चंपाई सोरेन ने वफादार सिपाही की तरह वैसा ही किया जैसा हेमंत सोरेन ने कहा. अब जब चंपाई खुलकर अपनी भावनाओं को व्यक्त कर रहे हैं तो सत्ताधारी दल में बेचैनी क्यों है यह बड़ा सवाल है. जानकार मानते हैं कि क्षणिक सुख के लिए हेमंत सोरेन ने बड़ी भूल कर दी और अपनी “लंका” की बर्बादी का कारण बन गए. चंपाई सोरेन आदिवासियों के बड़े नेता हैं इसमें कोई दो राय नहीं है. झारखंड के सभी आदिवासी मुख्यमंत्रियों की तुलना में उनका ग्राफ सबसे ऊपर है. आदिवासी का हर वर्ग उन्हें मानता है. यही वजह है कि हेमंत सोरेन ने एक बड़ा मौका गंवा दिया.