Editorial Desk झारखंड विधानसभा चुनाव 2024 के जंग में बीजेपी की बड़ी दुर्गति हुई है. इस दुर्गति को लेकर मंथन का दौर शुरू हो चुका है. बीजेपी हेडक्वार्टर में सभी विधानसभा प्रभारी तलब किए गए हैं. तीन दिसंबर को नव निर्वाचित विधायकों को भी बुलाया गया है. वहीं हारे हुए प्रत्याशियों को भी बुलाया गया है. मगर क्या इससे बीजेपी सबक लेगी ? दुनिया का सबसे बड़ा राजनीतिक दल होने के बाद भी उस झारखंड से बीजेपी का सूपड़ा साफ हो गया जिसकी नींव भाजपा ने रखी थी.
18 साल बीजेपी ने इस राज्य पर शासन किया मगर क्या वजह रही कि भाजपा को आज यह दिन देखना पड़ा जबकि उनके खेमे में पांच- पांच पूर्व मुख्यमंत्रियों की फौज खड़ी थी. राज्य के पहले मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी, अर्जुन मुंडा, मधु कोड़ा, रघुवर दास, और चंपाई सोरेन सरीखे दिग्गजों के रहते बीजेपी की ऐसी दुर्गति हो गई इसकी कल्पना बीजेपी के स्टार कैम्पेनरों ने भी नहीं सोची होगी. भाजपा की इस दुर्गति के जिम्मेदार कौन है, इस पर चिंतन- मनन के बाद क्या निष्कर्ष निकलेगा इस पर हमारी नजर बनी रहेगी. हमारे सर्वे के अनुसार झारखंड बीजेपी के बड़े नेता आराम तलबी हो चुके हैं. उन्हें इससे कोई फर्क नहीं पड़ने वाला कि पार्टी की राज्य में क्या दुर्गति हो चुकी है. सभी का अपना- अपना गिरोह बन चुका है. हर नेता मठाधीश बन चुका है. केंद्र से पार्टी चलाने के लिए पर्याप्त फंडिंग हो रहा है जिसे ऊपर के नेता आपस में बांट रहे हैं. जमीन से जुड़े कार्यकर्ताओं को केवल प्रचार- प्रसार का जिम्मा मिलता है, इससे ज्यादा कुछ नहीं. जो कार्यकर्ता सालों साल से पार्टी को सींच रहे हैं उन्हें पूछनेवाला भी कोई नहीं है.
चुनाव के वक्त पैरवी और धनबल के सहारे बाहरी प्रत्याशियों को थोंप दिया जाता है जिसे कुछ कार्यकर्ता स्वीकार कर लेते हैं जबकि कुछ कार्यकर्ता मौन रहकर खुद को चुनावी प्रक्रिया से अलग कर लेते हैं. शहरी क्षेत्र के मतदाता आज भी बीजेपी कोई अपना वोट दे रहे हैं जिसे दिल्ली और रांची में बैठे नेता यह मान रहे हैं कि उनके प्रभारियों की वजह से शहरी वोट मिल रहे हैं जबकि ऐसी बात नहीं है. सच्चाई यही है कि उन प्रभारियों को विधानसभा से लेकर मंडल और बूथ के डेमोग्राफी की भी जांच जानकारी नहीं होती है. चुनावी सभाओं में भीड़ जुटाने तक ही उनकी जिम्मेदारी रहती है.
जमीनी सच्चाई यही है कि भाजपा की जमीन खोखली होती चली जा रही है. यहां के नेता आलाकमान को जमीनी मुद्दों से अवगत नहीं कराते हैं. आला कमान की ओर से केंद्र की योजनाएं थोपी जाती है जो कारगर साबित नहीं हो रहे हैं.
कोल्हान की यदि हम बात करें तो यहां पिछले विधानसभा चुनाव की तुलना में इस बार एनडीए का खाता जरूर खुला है मगर बीजेपी के भरोसे नहीं. जमशेदपुर पूर्वी सीट सरयू राय के पास थी. उन्हें एनडीए गठबंधन के तहत जमशेदपुर पश्चिम भेजा गया इसलिए दोनों सीट पर एनडीए अपनी साख बचाने में सफल रही. हालांकि बागियों ने कोई कोर- कसर नहीं छोड़ी थी. मगर क्षेत्र की जनता ने प्रतिबध्दता दिखाई और दोनों ही सीटों पर भाजपा- जदयू के प्रत्याशियों की जीत हुई. वैसे जमशेदपुर पूर्वी भाजपा का अभेद्य किला रहा है. पिछले विधानसभा चुनाव में रघुवर दास और सरयू राय की लड़ाई में सरयू राय ने बाजी मारी थी और 25 साल से अपराजित रही जमशेदपुर पूर्वी की सीट पर कब्जा जमाया था. भाजपा ने इस बार इस सीट पर वापसी कर ली है. हालांकि इस सीट पर रघुवर दास की बहू पूर्णिमा साहू विजय हुई है. वह भी रिकॉर्ड मतों से.
अब बात करते हैं सिंहभूम संसदीय सीट की इसके अंतर्गत छह विधानसभा आते हैं. सरायकेला को छोड़ सभी पांच सीटों पर भाजपा- एनडीए का सूपड़ा साफ हो गया. इतना ही नहीं भाजपा को खरसावां और ईचागढ़ सीट भी गंवानी पड़ी. इससे पहले लोकसभा सीट भी बीजेपी को गंवानी पड़ी. लोकसभा सीट हारने के बाद बीजेपी ने सबक लेने के बजाय फिर उन्ही चेहरों पर दांव लगाया जिनका परफॉर्मेंस लोकसभा चुनाव के दौरान बढ़िया नहीं था. क्या जिलाध्यक्ष से लेकर विधानसभा प्रभारियों, मंडल और बूथ अध्यक्षों के कार्यों की समीक्षा होगी ? सरायकेला की लाज इसलिए बच गयी क्योंकि यहां आदित्यपुर और सरायकेला शहरी वोटर थे. शहरी वोटरों को चंपाई सोरेन के खास कैडरों ने बिखरने से बचा लिया. भाजपाई बस तस्वीरें खिंचवाने में व्यस्त रहे. जरूरत है सारे पुराने भजपाइयों के कार्यों की सूक्ष्मता से समीक्षा हो और नए एवं जमीनी कार्यकर्ताओं को सामने लायी जाए.