DESK REPORT झारखंड की नागरिकता चाहिए तो आपको 1932 का खतियान दिखाना होगा. झारखंड की वर्तमान हेमंत सोरेन कैबिनेट के तुगलकी फरमान ने कोल्हान के 23 लाख लोगों के लिए दुविधा खड़ी कर दी है. भले खतियान आधारित स्थानीय नीति की वकालत करने वाले इसे अपनी जीत मान रहे हों और सरकार के निर्णय पर खूब पटाखे फोड़ स्वागत कर रहे हैं, मगर सरकार के फरमान से उन्हें कोई लाभ मिलता नजर नहीं आ रहा है.
जो आज 1932 के खतियान को आधार मानते हुए स्थानीय नीति बनाने की वकालत कर रहे हैं, उनके पास 1932 का खतियान है ये संभव नहीं. क्योकि जब सरायकेला और खरसावां राज परिवार जिनकी 64 वीं पीढ़ी वर्तमान में यहां मौजूद हैं, और उनके पास ही 1932 का खतियान नहीं है तो आप समझ सकते हैं, कि सरकार के तुगलकी फरमान का अंजाम क्या होनेवाला है.
बता दें कि 1205 में कोल्हान में पोड़ाहाट रियासत हुआ करती थी. पोड़ाहाट रियासत का साम्राज्य धालभूमगढ़ से लेकर सरायकेला और खरसावां तक हुआ करता था. यहां के राजा सिंहदेव घराने से थे. सिंहदेव घराने के शाही परिवार की 64 वीं पीढ़ी आज भी सरायकेला और खरसावां में मौजूद हैं. जब हमने उनसे जानने का प्रयास किया तो दोनों स्टेट के वर्तमान राजाओं ने सरकार के फैसले पर बेहद ही संतुलित और सटीक जवाब दिया. मगर दोनों ही स्टेट के राजाओं ने इतना साफ कर दिया कि उनकी 64 वीं पीढ़ी पिछले एक हजार सालों से राज जरूर कर रही है, मगर 1932 का खतिया दिखाना उनके लिए संभव नहीं. कारण क्या है उसे जानने से पहले आप सरायकेला और खरसावां रियासत की वर्तमान तस्वीर देख लें ताकि आपको पता चल सके कि झारखंड के गौरवशाली इतिहास की गाथा इन महलों में आज भी विद्यमान हैं.
देखें सरायकेला और खरसावां राजमहल की तस्वीरें video
देखा आपने ये हैं. सरायकेला और खरसावां राजमहल की तस्वीरें. इन राजमहलों का 1000 साल पुराना इतिहास है. मगर इनके राजाओं के पास भी 1932 का खतियान नहीं है. कारण जानने के लिए सबसे पहले आप खरसावां राजपरिवार के वर्तमान राजा गोपाल नारायण सिंहदेव की बातों को गौर से सुनें…..
बाईट
गोपाल नारायण सिंहदेव (राजा- खरसावां स्टेट)
सुना आपने राजा गोपाल नारायण सिंहदेव ने क्या कहा, कि उनकी 64 वीं पीढ़ी झारखंड में राज कर रही है मगर उनके पास 1932 का खतियान नहीं है. और झारखंड की हेमंत सोरेन सरकार यहां के आम आदिवासियों मूल वासियों को 1932 का खतियान देखकर स्थानीयता देगी. चलिए आप आपको लिए चलते हैं सरायकेला राज परिवार के राजा प्रताप आदित्य सिंहदेव के पास. जरा उनकी क्या राय है 1932 के खतियान को लेकर उसे भी जान लिया जाए….
बाईट
प्रताप आदित्य सिंहदेव (राजा- सरायकेला स्टेट)
दरअसल खरसावां स्टेट सरायकेला से सन 1620 के बाद अलग हुआ. 1205 में सरायकेला पोड़ाहाट स्टेट से अलग हुआ. सरायकेला राज घराने का साम्राज्य आनंदपुर से लेकर आदित्यपुर और ओड़िसा बॉर्डर से लेकर बंगाल बॉर्डर तक हुआ करता था. इसके अधीन कई छोटी- छोटी रियासतें हुआ करती थी. आजादी से पूर्व देश में 555 रियासतें हुआ करती थी. आजादी के बाद एक तिहाई रियासत आजाद भारत का हिस्सा बना. जबकि दो तिहाई भाग 555 रियासतों में समाहित थे. 14 दिसंबर 1948 को भारत सरकार के तत्कालीन गृह मंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल एवं मंत्री वीपी मेनन के साथ सरायकेला एवं खरसावां के राजाओं ने मर्जर संधि पर हस्ताक्षर किए. उस वक्त दोनों स्टेट उड़ीसा सरकार के अधीन थी. 1 जनवरी 1948 को उड़ीसा सरकार ने दोनों रियासतों को अपने अधीन किया. उस वक्त दोनों रियासतों के दस्तावेज उड़ीसा ट्रेजरी में जमा कराए गए. 1 जनवरी 1948 को आजाद भारत के सबसे बड़े नरसंहार खरसावां गोलीकांड के बाद 18 मई 1948 को उड़ीसा से अलग होकर दोनों रियासत बिहार सरकार के अधीन चली गई. तब अभिलेख ताम्रपत्र के रूप में हुआ करते थे. आज वे ताम्रपत्र कहां हैं यह कौन सरकार बताएगी. ऐसे में 1932 खतियान आधारित स्थानीय नीति को सरकार का तुगलकी फरमान कहा जाए या कुछ और ! हालांकि झारखंड सरकार के इस तुगलकी फरमान का विरोध खुद राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस को- कॉर्डिनेशन कमेटी के सदस्य मधु कोड़ा एवं सिंहभूम सांसद सह प्रदेश कांग्रेस कार्यकारिणी अध्यक्ष गीता कोड़ा के अलावे झारखंड की राजनीति के भीष्म पितामह जमशेदपुर पूर्वी के विधायक सरयू राय भी कर चुके हैं. हालांकि जितनी आसानी से मंत्रिमंडल ने यह निर्णय सुना दिया उसे अमलीजामा पहनाना इतना आसान नहीं होगा. फिर चाहे खतियान आधारित स्थानीय नीति हो या ओबीसी को 27 फ़ीसदी आरक्षण का मामला. वैसे राज्य सरकार के दोनों ही निर्णयों ने उस कोल्हान की जनता को सोचने पर विवश कर दिया है, जहां की जनता ने 2019 के चुनाव में भाजपा का सूपड़ा साफ कर हेमंत सोरेन पर भरोसा जताया और उन्हें गद्दी पर बिठाने का काम किया.