HOLI SPECIAL प्रकृति फागुन आने का अहसास करा रही है. मौसम में बदलाव और प्रकृति की अंगड़ाई होली के आगमन का सूचक हैं. बसंत के चढ़ते ही पलाश के पेड़ों पर नारंगी रंग के फूल झूमने लगे हैं.
भले ही पलाश वृक्ष की लकड़ी की कोई खास अहमियत नहीं हो, लेकिन आदिवासी बालाओं के जुड़े में सजने वाला झारखंड के राजकीय फूल पलाश की गरिमा खास है. पलाश फूल का आदिवासी संस्कृति और सभ्यता से भी गहरा लगाव है. सांस्कृतिक कार्यक्रम समेत विभिन्न आयोजनों में भी इस फूल की महत्ता है, हालांकि आदिवासी समुदाय के बीच सखुआ फूल की अहमियत सबसे खास है. सखुआ के फूल से पूजा और विभिन्न अनुष्ठान करने की परंपरा सदियों से चली आ रही है. आदिवासी समुदाय फाल्गुन में हाेली खेलते हैं जिसे बाहा कहा जाता है.
झारखंड में पलाश के फूलों से बने रंगो से होली खेलने की अनोखी परंपरा है. खासकर ग्रामीण इलाकों में केमिकल युक्त रंगों के बदले लोग प्राकृतिक रंगों से होली खेलते हैं. पिचकारी में भरकर एक- दूसरे को मारते हैं. होली के तीन- चार दिन पहले से ही लोग रंग बनाने में जुट जाते हैं. ठंड के बाद, गर्मी आने से पहले राज्य के जंगलों में पलाश के लाल फूलों की चादर बिछ जाती है. कहा जाता है कि ऋतुराज बसंत की सुंदरता पलाश के फूल के बगैर पूर्ण नहीं होती. इसके फूल को बसंत का श्रृंगार माना जाता है. होली का पर्व हो और सिंदूरी लाल पलाश या टेसू के फूल का जिक्र न हो ऐसा संभव ही नहीं है. जी हां, रासायनिक रंगों के दौर में भी सिंदूरी लाल पलाश से बने रंगों की काफी डिमांड है. इसकी खास वजह भी है, होली रंगों का त्यौहार है. रंगों के इस त्यौहार में सिंदूरी लाल पलाश या टेसू के फूलों का प्रयोग लंबे समय से रंग बनाने के लिए किया जाता है, जिससे लोग होली खेलते थे. वर्तमान में रासायनिक रंगों की सुलभता ने भले ही लोगों को प्रकृति से दूर कर दिया हो, लेकिन रासायनिक रंगों से होने वाले नुकसान और स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता के कारण लोग दुबारा प्रकृति की ओर रुख करने लगे हैं. आज भी ग्रामीण इलाकों में पलाश के फूल से बने रंगों से होली खेली जाती है, क्योंकि इस रंग से त्वचा को कोई नुकसान नहीं होता है. पलाश के फूल का जिक्र साहित्यकारों ने अपनी रचनाओं में किया है, वहीं होली के दौरान गाए जाने वाले गीतों में भी पलाश या टेसू के फूल का जिक्र मिलता है. कवियों ने अपनी कविताओं में भी पलाश के फूलों का गुणगान किया है. साथ ही इसके असीमित औषधीय गुण शरीर के लिए फायदेमंद होते हैं.
वर्तमान समय में भी सरायकेला के राजनगर, सरायकेला के ग्रामीण क्षेत्र और कुचाई में पलाश के फूल से रंग तैयार किया जाता है. जहां आज भी लोग पलाश के फूल से बने प्राकृतिक रंग से लोग होली खेलते हैं. प्राचीन काल में इसके फूलों का इस्तेमाल कपड़ों को रंगने के लिए किया जाता था. पलाश के फूल से बने रंग से होली खेलने से शरीर में रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ता है.
*ऐसे तैयार होता है पलाश के फूलों से रंग*
पलाश के फूल से कई विधियों से रंग बनाया जाता है. फूल से रंग बनाने के लिए पहले फूल को छाया में सुखाया जाता है. सूखे फूलों को दो से तीन लीटर पानी में डालकर दो से तीन दिन तक के लिए छोड़ दिया जाता है. इसके बाद पानी का रंग लाल या सिंदूरी हो जाता है. इस रंगीन पानी का इस्तेमाल सुरक्षित होली खेलने के लिए किया जा सकता है. दूसरे तरीके से पलाश के फूल को पेड़ से तोड़कर मिट्टी के हंडी में दो से तीन दिनों तक रखा जाता है, इसके बाद इससे रंग निकल आता है, जो काफी गहरा होता है. ग्रामीण पहले जंगल से पलाश के फूलों को तोड़कर लाते हैं। फिर फूलों को पानी में भिंगोया जाता है, फिर पत्थरों पर घिसा जाता है. पूरी तरह घिस जाने के बाद इन्हें कपड़ों में डालकर छान लिया जाता है. इसके बाद शुद्ध हर्बल रंग तैयार हो जाता है. इन रंगों से होली खेलने पर कोई साइड इफेक्ट नहीं होता.
*फूल से बने रंगों से शरीर को नहीं होता नुकसान*
ग्रामीणों का कहना है कि ठंड की समाप्ति और गर्मी के आगमन के पूर्व होली का त्यौहार आता है. होली खेलने के लिए प्राकृतिक रंगों में सबसे बेहतर पलाश के फूल से निर्मित रंग ही हैं. होली आने से पूर्व पलाश के पेड़ फूलों से लद जाते हैं. इससे बने रंगों से होली खेलने पर शरीर को कोई नुकसान नहीं होता, बल्कि रोगग्रस्त लोग निरोग हो जाते हैं. ग्रामीणों के मुताबिक पलाश के फूल से बने रंगों में चंदन और नीम की पत्तियां भी मिलाई जाती हैं, इससे यह और गुणकारी हो जाता है.