DESK बड़े पर्व त्यौहारों के मौके पर शांति बनाए रखने को लेकर शांति समितियों की बैठक आयोजित करने का पुराना चलन है. बावजूद इसके अशांति फैलाने वाले अपने मंसूबों में कामयाब हो जाते हैं. उसके बाद शांति समिति के सदस्य भूमिगत हो जाते हैं. ऐसे में शांति समिति के अस्तित्व पर कई सवाल उठने लगे हैं. वही घिसे- पिटे मुद्दे, वही पुराने लोग जिनकी अपने समाज और मुहल्ले यहां तक कि अपने घर में पूछ नहीं के बराबर रह गयी है वे शांति समिति की बैठक में नजर आते हैं और रटा- रटाया पुराना राग अलाप कर चाय- बिस्किट और मिठाइयों के डब्बे लेकर ऐसे निकल जाते हैं जैसे उन्होंने बड़ा जंग जीत लिया है.

ऐसे में शांति समितियों के अस्तित्व पर सवाल उठने लगे हैं. क्यों नहीं शांति समितियों का पुनर्गठन हो रहा है. क्यों नहीं उसमें नए चेहरों को शामिल किया जा रहा है. शांति समितियों की बैठकों में उठने वाले मुद्दों पर कितना काम हुआ, हुआ भी कि नहीं क्यों इसपर कोई जांच नहीं होती. थाना स्तर, प्रखंड स्तर, अनुमंडल स्तर और जिला स्तर पर बने शांति समितियों के कार्यों का समय- समय पर मूल्यांकन क्यों नहीं किया जाता है ऐसे कई सवाल अब मुखर होने लगे हैं. समय के अनुसार अपराध, हिंसा, सांप्रदायिक दंगों के प्रकृति में बदलाव आया है. इसलिए शांति समिति में भी बदलाव होने चाहिए यही समय की मांग है. सबसे बड़ी बात यह देखने को मिलती है कि जिस आयोजन को लेकर शांति समिति की बैठक बुलाई जाती है बैठक के दौरान उन मुद्दों पर बात तक नहीं होती. न संबंधित विभागों के पदाधिकारी होते हैं ना जनप्रतिनिधि. जो कहीं ना कहीं महज एक खाना पूर्ति बनकर रह जाती है. उसके बाद का काम मीडिया कर देता है.
