चांडिल: बीते 16 फरवरी की शाम को चांडिल थाना क्षेत्र के नेशनल हाईवे पाटा टोल प्लाजा में भगवाधारी गुंडों द्वारा मचाए गए तांडव को लेकर खाकी और खादी में गुप्त समझौता हुआ है. यही वजह है कि करीब 21 दिन बाद भी घटना के जिम्मेदार महंत विद्यानंद सरस्वती एवं उनके समर्थकों के खिलाफ पुलिस की ओर से कोई कार्रवाई नहीं की गई है.
पुलिस की अगर मानें तो टोल एजेंसी की ओर से जो शिकायत मिले हैं उसकी जांच चल रही है. जांच के बाद ही किसी निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं. सवाल यह उठता है कि पुलिस किस तरह की जांच कर रही है, जबकि जो वीडियो क्लिप उपलब्ध हैं उसे देखकर किसी साक्ष्य की जरूरत पड़े ये हास्यास्पद हैं. इससे साफ प्रतीत होता है कि भगवाधारी महंत को बचाने का पूरा खाका खादीधारी के इशारे पर खाकीधारी करने में जुटे है.
उक्त घटना में जिस तरह की हिंसा का प्रदर्शन महंत की मौजूदगी में की गई थी वह किसी को भी विचलित कर सकता है. महज 20- 25 रुपए के टोल टैक्स के लिए 25 लाख की लक्जरी गाड़ी पर चलनेवाले महंत के इशारे पर पूरे पाटा टोल प्लाजा को कुरुक्षेत्र की रणभूमि में तब्दील कर दिया गया था. यदि आपको स्मरण न हो तो इस video क्लिप को एकबार पुनः देख लें.
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उक्त हिंसा में दो- तीन टोल कर्मी को गंभीर चोटें आई थीं. सभी को खामोश कर दिया गया. दो चार दिन स्थानीय आदिवसी- मूलवासी ग्रामीणों व जनप्रतिनिधियों ने खूब हायतौबा मचाया, मगर अब सबकुछ मैनेज कर लिया गया. महंत ने बजावते बयान जारी कर कहा गया था कि उनकी छवि खराब करने का षड्यंत्र रचा गया है. महंत को बताना चाहिए था कि उनके खिलाफ क्या षड्यंत्र रचा गया था ? क्या उनकी मौजूदगी में उनके गुंडों ने उत्पात नहीं मचाया था ? क्या उन्होंने उत्पात मचा रहे गुंडों को नियंत्रित करने की पहल की थी ? फिर कैसी साजिश महंत जी !
कानून के दो रंग !
इस घटना से साफ हो गया है कि कानून के दो रंग होते हैं. इस तरह की घटना को अंजाम यदि एक आम इंसान देता तो उसके खिलाफ हिंसा से संबंधित कानून में जितनी धाराएं वर्णित हैं सभी धाराएं लगाकर अबतक हवालात के पीछे भेज दिया गया होता, जांच बाद में होता. अब सवाल यह उठता है कि आखिर निरीह टोल कर्मियों की क्या गलती थी ? वीडियो फुटेज में साफ तौर पर देखा जा सकता है कि जानवरों की तरह टोल कर्मियों की पिटाई हो रही है. एनएचएआई द्वारा अज्ञात के खिलाफ मामला दर्ज कराया गया जो साफ दर्शाता है कि खेल क्या हुआ. पुलिस अज्ञात के खिलाफ मामला दर्ज कर जांच का दावा कर रही है. जबकि घटना का सीसीटीवी फुटेज चीख- चीख कर महंत के गुंडों का प्रमाण दे रहे हैं. सूत्रों की अगर मानें तो पूरे मामले को मैनेज करने का खेल चल रहा है. करीब एक घंटे तक पाटा टोल प्लाजा पर महंत की मौजूदगी में समर्थकों ने जिस तरह का तांडव मचाया उससे महंत के आध्यत्मिक होने पर प्रश्नचिन्ह लग गया है. हो सकता है इस रिपोर्ट से सनातन धर्म के अनुयायियों को निराशा होगी, मगर उन्हें कुछ सवालों के जवाब सनातन धर्म के ग्रंथों में ढूंढने चाहिए मसलन
पाटा टोल प्लाजा पर किसकी और क्यों पिटाई की गई क्या वे दूसरे धर्म- सम्प्रदाय के थे ?
टोल प्लाजा सरकारी संपत्ति था या निजी !
जिस तरह एक संत की मौजूदगी में निरीह टोल कर्मिंयों की पिटाई की गई ऐसे में उसके अंदर किस स्वरूप का होना माना जाए ? देवता या दानव का !
महंत के अनुयायियों को भी यह सोचना चाहिए कि उन्हें सनातन धर्म की कौन सी शिक्षा दी गयी है. उन राजनेताओं और कानून के रक्षकों को भी सोचना चाहिए कि वे कैसे व्यक्ति का सहयोग कर पूरे प्रकरण की लीपापोती में जुटे हैं.
चलिए अब फ़क़ीर से जमींदार महंत की पूरी कहानी बताते हैं
पारडीह काली मंदिर में बने आधा दर्जन लक्जरी कमरों में अत्याधुनिक सुविधाएं. महंत के हाथों में रोलेक्स की घड़ी और लाखों की महंगी गाड़ियों के स्वामी विद्यानंद सरस्वती के सम्बंध में पुराने बुजुर्गों बताते हैं कि वर्तमान में जिस जगह पर काली मंदिर है, वहां आदिवासी भूमिज समाज द्वारा वनदेवी की पूजा की जाती थी. वहां मस्तानन्द सरस्वती आदिवासियों के क्षत्रछाया में रहते थे और आदिवासियों की भिक्षा- दक्षिणा से जीवन- यापन चलता था. इस दौरान मस्तानन्द सरस्वती का निधन हो जाता है और उसी भूमिज लोगों की जमीन पर उनकी समाधि बनाई जाती हैं. इस बीच विद्यानंद सरस्वती उत्तर प्रदेश से वहां पहुंचते हैं और मस्तानन्द सरस्वती के समाधि स्थल पर पूजा- पाठ शुरू करते हैं. आदिवासियों के साथ मिलकर काली मां की प्रतिमा स्थापित करवाते हैं. दूसरी ओर विद्यानंद सरस्वती स्थानीय प्रभावशाली लोगों के साथ संबंध बनाने में जुट जाते हैं. स्थानीय लोगों के सहयोग से धीरे- धीरे मंदिर निर्माण कार्य शुरू किया जाता है. समय के साथ- साथ वहां के आदिवासी उस जगह से बेदखल होते गए.
जमीन के सौदे में आ चुका है नाम
बताया जाता है कि महंत पर्दे के पीछे से जमीन खरीद- बिक्री का धंधा चलाते हैं. इनके ऊपर आदिवासी भूमिज समाज की जमीन हड़पने का आरोप लग चुका है. फदलोगोड़ा, आसनबनी आसपास क्षेत्र में कई आदिवासी और सरकारी जमीन को बड़े बिल्डरों और होटल मालिकों को विद्यानंद सरकारी के अनुयायियों ने बेच दिया है. यह सब काम विद्यानंद सरस्वती के जानकारी तथा संरक्षण में ही होता है.
मंदिर के सामने सरकारी जमीन पर कब्जा, प्रत्येक दुकान का किराया पांच हजार रुपये, टोकन मनी दो लाख रुपये
मंदिर के सामने सरकारी जमीन है, जमीन का कुछ हिस्सा फदलोगोड़ा के भूतनाथ महतो के भाई जयप्रकाश महतो के नाम पर बंदोबस्ती है. विद्यानंद सरस्वती ने जयप्रकाश महतो को पहले अपने मीठे- मीठे बातों से फंसाया और फिर उसके बंदोबस्ती जमीन पर दुकानों का निर्माण करवाया. वर्तमान में फिर से उस जमीन पर बड़े- बड़े बिल्डिंग निर्माण कराया जा रहा है. यहां करीब 15 दुकानें हैं. प्रत्येक दुकान से प्रति माह पांच हजार रुपये किराया लिया जाता है और दुकानदारों से टोकन मनी के रूप में दो लाख रुपये लिए जाते हैं.
सालाना उत्सव के नाम पर वसूली का कोई हिसाब- किताब नहीं
हर साल एक जनवरी को महंत भंडारा आयोजन कराते हैं. भंडारा के नाम पर जमशेदपुर के श्रद्धालुओं से जमकर चंदा वसूली करते हैं. उन पैसों का किसी को हिसाब किताब देने की जरूरत नहीं होती हैं.
मंदिर को लेकर हो चुका है विरोध
झामुमो के पूर्व चांडिल प्रखंड अध्यक्ष भरत नाग तथा फलारी उरांव के नेतृत्व में ग्रामीणों ने महंत विद्यानंद सरस्वती के कुकर्मों के खिलाफ चांडिल एसडीओ कार्यालय में आमरण अनशन किया गया था और मंदिर के सामने धरना- प्रदर्शन किया गया था. उस समय विद्यानंद सरस्वती द्वारा मंदिर की आड़ लेकर सरकारी जमीन को घेरा जा रहा था. ग्रामीणों की मांग थी कि मंदिर संचालन ग्रामीणों को दी जाए, न कि जूना अखाड़ा के अधीन रहे. इस दौरान बाबा ने कुछ प्रभावशाली लोगों के माध्यम से आंदोलन को खत्म कराने का प्रयास किया था, जिसमें वे सफल रहे.
दलमा शिव मंदिर पर कब्जा जमाने का प्रयास विफल रहा, आदिवासियों ने खदेड़ा था
दलमा के प्राचीन शिव मंदिर पर विद्यानंद सरस्वती ने कब्जा जमाने का प्रयास किया था, लेकिन आदिवासियों की एकता और आंदोलन के कारण दलमा पर वे कब्जा करने में विफल रहे. दरअसल, दलमा शिव मंदिर प्राचीन काल से है और वहां आदिवासी भूमिज समाज द्वारा मंदिर का संचालन किया जाता है. वहां पर किसी भी श्रद्धालुओं को दान- दक्षिणा देने के लिए बाध्य नहीं किया जाता है, लेकिन पारडीह काली मंदिर की तरह विद्यानंद सरस्वती ने दलमा शिव मंदिर पर अपना आधिपत्य जमाने का प्रयास किया था. वे अपनी मनमर्जी से दलमा शिव मंदिर का संचालन करना चाहते थे जो कि आदिवासियों को नागवार गुजरा और विद्यानंद सरस्वती को वहां से खदेड़ दिया.