संतोष कुमार ग्रुप एडिटर (indianewsviral.co.in/ India News Viral Bihar/ Jharkhand)
Expression बढ़ते डिजीटलीकरण और संचार के माध्यमों ने बाजारवादी मानसिकता के प्रभाव में आ चुके मेन स्ट्रीम जर्नलिज्म को कटघरे में खड़ा कर दिया है. जहां बाजारवाद, सरकार और राजनीति से प्रेरित मीडिया संस्थानों की बड़े पैमाने पर किरकिरी शुरू हो चुकी है, और उनपर गोदी मीडिया, नीच मीडिया और बिकाऊ मीडिया जैसे आरोप लगने लगे हैं.
जाहिर सी बात है उन संस्थानों के पत्रकारों को भी ऐसी मानसिकताओं का सामना करना पड़ रहा होगा, ऐसे में उन संस्थानों के कुछ पत्रकारों ने हालात और परिस्थितियों को भांपते हुए संस्थान की गुलामी करना कुबूल कर लिया और कुछ (जो पत्रकारिता के एथिक्स को बचाना चाहते थे) ने वेब जर्नलिज्म की राह पकड़ ली. जहां लिखने की कोई बंदिशें नहीं हैं. आज पत्रकारिता इन्ही दो धुरी पर केंद्रित हैं, और दोनों के बीच अंतर्द्वंद्व जारी है. फर्क इतना है कि बाजारवाद, राजनीति और सरकार के प्रभाव में काम करनेवाले मीडिया संस्थानों के मीडियाकर्मियों के पास नाम रह गया है, कि वे राजा के वंशज हैं, जमीनी हकीकत यही है, कि उन्हें वही लिखने की आजादी है, जो संस्थान लिखवाना चाहती है. नहीं तो एक मुख्यमंत्री, मंत्री, विधायक, सरकारी अधिकारी खुले मंच से मीडिया को कटघरे में खड़ा कर दे और मीडिया संस्थान चुप रह जाए ये बात हजम नहीं होता. ऐसा 90 की दशक से पूर्व संभव नहीं था. 90 के दशक के बाद से मीडिया संस्थान बाजारवाद के प्रभाव में आया और आज इस हाल में पहुंच गया, कि उनके हाथों में हथियार रहने के बाद भी चलाने की हिम्मत नहीं रह गयी.
मेन स्ट्रीम मीडिया समूहों के पत्रकारों के लिए वरदान बना वेब जर्नलिज्म
नौकरी की मानसिकता को लेकर पत्रकारिता कर रहे मेन स्ट्रीम मीडिया समूहों के पत्रकारों के लिए वेब जर्नलिज्म वरदान साबित हो रहा है. क्योंकि वेब जर्नलिज्म खबरों के साथ कोई समझौता नहीं करता, और तत्काल ही खबरों को सोशल मीडिया पर वायरल कर देता है. ऐसे में मेन स्ट्रीम मीडिया समूहों के संस्थानों के पत्रकार उस पर पड़ताल कर अगले दिन अखबारों में प्रकाशित करते हैं. जबकि पहले ऐसा नहीं होता था, अखबारों के रिपोर्टरों की धाक होती थी. अगले दिन किस अखबार में कौन सा खबर हेड लाइन होगा और किस पत्रकार की खबर छूटने पर क्लास लगाई जाएगी इसका डर बना रहता था. मगर वेब जर्नलिज्म ने पत्रकारों को इस झंझट से मुक्त करा दिया. अब क्षेत्रीय खबर हेड लाइन नहीं बनती, अगर बनती है, तो सारे अखबारों में लगभग एक समान रहती है. हालांकि इससे पहले बड़ा वर्ग खबरों को पढ़ चुका होता है. अखबार पढ़ना महज एक औपचारिकता रह जाती है. एक शोध के अनुसार लगभग 80 फ़ीसदी आबादी वेबसाइट और सोशल मीडिया की खबरों को पढ़ रही है. लॉक डाउन के बाद वेबसाइट के पाठकों की संख्या में अप्रत्याशित वृद्धि हुई है. कई बड़े मीडिया संस्थानों को आर्थिक नुकसान भी उठाना पड़ रहा है. यही कारण है कि बाजारवाद सरकार और राजनीति के संरक्षण में मीडिया समूह अब उनके समक्ष पूरी तरह से नतमस्तक हो चुके हैं.
वेबसाइट मोटी रकम देख अखबारों के रिपोर्टरों का कर रहे अधिग्रहण
देश में आज की तारीख में कई बड़े वेबसाइट संचालित हो रहे हैं, जो बड़े- बड़े मीडिया समूहों के पत्रकारों को मोटी रकम देकर अधिग्रहण कर रहे हैं. और तेजी से अपने सोर्सेज बढ़ा रहे हैं. इस क्रांति में सबसे ज्यादा फायदा बड़े संस्थानों के आंचलिक रिपोर्टरों को हुआ है. जहां बड़े संस्थान उन्हें कल तक पहचान देना भी जरूरी नहीं समझते थे, आज वेब जर्नलिज्म उन्हें पहचान के साथ तनख्वाह भी दे रहे हैं, वो भी बड़े संस्थानों की तुलना में कई गुना ज्यादा और बगैर किसी दबाव के. यही कारण है कि बड़े संस्थानों के पत्रकार भी आज “बैक डोर” से वेब जर्नलिज्म की राह पर चल पड़े हैं. एक तरफ डूबे तो दूसरी तरफ संभल जाएं इस फलसफा पर काम कर रहे हैं. हालांकि जब बात वेब जर्नलिज्म और मेन स्ट्रीम पत्रकारिता की आती है, तो पर्दे के पीछे से वेब जर्नलिज्म की पत्रकारिता करने वाले पत्रकार मुखर होकर वेब जर्नलिज्म के विरोध में हो जाते हैं. और प्रशासन और जनता के समक्ष अपने ही साथ काम करनेवाले पत्रकारों को कटघरे में खड़ा करने से नहीं चूकते, जबकि अगर वेबसाइट के रिपोर्टर फील्ड से कोई खबर करे तो मेन स्ट्रीम पत्रकार उनसे अपने प्रभाव का लाभ उठाकर खबरें मांगने से तनिक भी नहीं हिचकते. मतलब यहां हम कह सकते हैं, कि वैसे मेन स्ट्रीम समूह के पत्रकार गुड़ तो खाते हैं मगर गुलगुले से परहेज करते हैं.
राजनेता, प्रशासन और सामाजिक संगठन उठा रहे फायदा
वेब जर्नलिज्म के बढ़ते दायरे और खबरों में पकड़ को देखते हुए राजनेता, प्रशासन और सामाजिक संगठन भी वेबसाइट के रिपोर्टरों को तरजीह दे रहे हैं. भले खुले मंच से नहीं मगर सोशल मीडिया के माध्यम से अपनी खबरों को उन तक पहुंचा रहे हैं और अपनी खबरें लगवा रहे हैं. अलग बात है कि बड़े समूह के अखबारों में खबरें छपवाना उनकी प्राथमिकता रहती है. इसके लिए वे अन्य संसाधनों का भी प्रयोग करते हैं उस जगह पर वेब जनरलिस्ट को तरजीह नहीं देते हैं. यहां जब हित टकराता है, तब प्रशासन, राजनेता और सामाजिक संगठन बैकफुट पर चले जाते हैं, और मेन स्ट्रीम पत्रकार उन्हें “फर्जी” जैसे शब्दों से संबोधित कर अपमानित करने से नहीं चूकते. यहां तक कि वेबसाइट के पत्रकारों को कुचलने के लिए उनके द्वारा कई घटिया और दुर्भावना से ग्रसित आरोप भी मढ़े जाते हैं. जिससे दोनों धड़ों के बीच दूरियां और असमानता बढ़ रही है. इसी का लाभ प्रशासन, राजनीतिक दल और सामाजिक संगठन उठा रहे हैं. जबकि ऐसा उनके साथ भी संभव हो सकता है, फिर उनके साथ भी ऐसा न हो इसकी अपेक्षा करना बेमानी होगी.
वेब जर्नलिज्म में भी सरकार और बाजारवाद हो रहा हावी
लगातार वेबसाइट के बढ़ते प्रभावों को देखते हुए सरकार की ओर से कुछ नियम एवं शर्तों के साथ सरकारी विज्ञापन दिए जा रहे हैं. बड़े वेबसाइट मोटी रकम खर्च कर सरकारी मूल- मान्यताओं को पूरा कर इसकी अहर्त्ता को पूर्ण कर रहे हैं, जिससे उन्हें सरकारी विज्ञापन भी मिल रहा है. इसके अलावा ढेरों निजी और राजनीतिक विज्ञापन भी वेबसाइट पर खूब आ रहे हैं. जिससे इसके भविष्य पर भी निष्पक्षता का खतरा मंडराने लगा है. यहां भी लिखने की आजादी आनेवाले दिनों में कुंद पड़ने का खतरा मंडराने लगा है.
पत्रकार कौन !
पत्रकारिता के दोनों धड़ों के बीच उपजे द्वंद्व के बीच “पत्रकार” कौन है यह सवाल एक यक्ष प्रश्न बन कर उठ खड़ा हुआ है. कल जो मेन स्ट्रीम पत्रकारिता में अपनी धमक बिखेरते थे, आज संस्थान के दबाव में काम छोड़ने के बाद वेब जर्नलिज्म की राह पर चल पड़े हैं. ऐसे में वह पत्रकार है, या नहीं इसका प्रमाण पत्र कौन देगा ? जबकि उन्होंने पढ़ाई ही लिखने की पढ़ी है, इसके अलावा उसे दूसरी कोई कला नहीं आती. क्या वे मेन स्ट्रीम पत्रकारों, राजनेताओं सरकार और प्रशासन की चापलूसी करे ? अगर यही करनी होती तो वे संस्थान की नौकरी छोड़ते क्यों. ऐसे में सरकार, प्रशासन, राजनीतिक संगठन और सामाजिक संगठनों को दोनों ही धड़ों के पत्रकारों को समान दृष्टिकोण से देखने की जरूरत है, क्योंकि समय और सत्ता परिवर्तनशील है, कब सेहरा किसके सर बांध जाए ये कहना मुश्किल है.