ELECTION DESK चुनाव हो और उसमें खेला न हो ऐसा हो ही नहीं सकता है. खेला चाहे मतदाताओं को रिझाने का हो या उन्हें गुमराह करने का. प्रत्याशियों के साथ भी खेला होता है. जमीनी कार्यकर्ता जो सालों साल इस उम्मीद से जनता से जुड़े रहते हैं कि चुनाव के वक्त पार्टी उन्हें मौका देगी मगर पार्टी के हवाई नेता एन मौके पर “बोरो” (बाहरी) प्रत्याशी को टिकट थमाकर उन्हें पार्टी के समर्पित कार्यकर्ताओं पर थोंप देते हैं. इससे न केवल पार्टी के समर्पित नेता और कार्यककर्ता बल्कि मतदाताओं में भी उहापोह की स्थिति बनी रहती है.
इतना ही नहीं चुनाव के वक्त बड़े- बड़े राजनीतिक दल नेम- फेम वाले युट्यूबर को हायर करते हैं जिन्हें भारी- भरकम पारिश्रमिक देकर क्षेत्र में पार्टी और प्रत्याशियों के फेवर में माहौल तैयार करने की जिम्मेदारी सौंपी जाती है. मजे की बात ये है कि उन्हें न तो क्षेत्र की भौगोलिक जानकारी होती है, न प्रत्याशियों का पूरा डेटा उनके पास होता है. ये स्थानीय रिपोर्टरों से सहयोग लेते हैं. चमचमाती महंगी गाड़ियां, प्राइवेट बाउंसर, महंगे होटलों में प्रवास ये उनकी पहचान है. ये यूटूबर्स जब पूरे तामझाम के साथ पहुंचते हैं और क्षेत्र की जनता का रिव्यू लेते हैं तो ऐसा लगता है कि वे “पत्रकारिता धर्म” निभा रहे हैं, मगर जब उन पब्लिक रिव्यू को अपने चैनलों पर दिखाते हैं तो उस भाग को काटकर हटा देते हैं जिसमें जनता उनके द्वारा बुलाए गए प्रत्याशियों अथवा दल की बुराई करते हैं. जो उनके निष्पक्षतता पर सवालिया निशान उठाते हैं. वे अनुबंधित दल अथवा प्रत्याशियों के समर्थन में ही खबरें बनाते हैं. क्या मजाल कि वे एक भी विरोधाभास को अपने चैनल पर दिखा दें. ये “राजधर्म” का ज्ञान क्षेत्र में बांटते हैं इन्हें जमीनी हकीकत नजर नहीं आती. स्थानीय पत्रकार बस उनके तामझाम देखकर अपने- आपको कोसते रह जाते हैं.
सालों- साल स्थानीय पत्रकार नेताओं के हर छोटी- बड़ी खबरों, कार्यकक्रमों का कवरेज कर दिखाते हैं और चुनाव के वक्त “बोरो युट्यूबर” और नेम- फेम वाले चैनलों के प्रतिनिधियों को पार्टी और प्रत्याशी अपने प्रचारक के रूप में उतार देते हैं और स्थानीय पत्रकार नेताओं और उनके चेला- चमचों के आगे- पीछे घूमकर सांत्वना पुरस्कार पाकर संतुष्ट हो जाते हैं. इसपर स्थानीय रिपोर्टरों को विचार करने की जरूरत है.