Editorial झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन सलाखों से बाहर आ गए हैं. अब वे बीजेपी को खुली चुनौती देते नजर आ रहे हैं. पहले की तुलना में हेमंत सोरेन अब ज्यादा आक्रामक नजर आ रहे हैं. वे यहां तक दावा कर रहे हैं कि चुनाव आयोग अभी झारखंड में विधानसभा चुनाव की घोषणा करे बीजेपी का सूपड़ा साफ हो जाएगा. क्या वाकई ऐसा संभव है ? आखिर किस ताकत के बूते हेमंत सोरेन ऐसा कह रहे हैं, जबकि अभी हाल ही में लोकसभा चुनाव संपन्न हुए हैं. वैसे लोकसभा चुनाव में झारखंड में महागठबंधन ने पांच सीटें हासिल किए हैं. 2019 की तुलना में तीन सीटें अधिक मिले हैं. तो क्या हेमंत सोरेन उसके आधार पर ही ताल ठोक रहे हैं या इसके पीछे कुछ और कारण है.
वैसे तो लोकसभा चुनाव में बीजेपी का प्रदर्शन झारखंड में बढ़िया नहीं रहा. बीजेपी को यहां के सभी एसटी सीटें गंवानी पड़ी है. इसमें सबसे बड़ी सीट खूंटी की रही. यहां से तीन बार के मुख्यमंत्री और दो बार के केंद्रीय रहे मंत्री अर्जुन मुंडा को बड़ी हार झेलनी पड़ी. यही हाल सिंहभूम, लोहरदगा, राजमहल और दुमका में हुआ. राजनीतिक विश्लेषक इसके पीछे आदिवासियों के अंदर हेमंत सोरेन के खिलाफ ईडी की कार्रवाई को मान रहे हैं. साथ ही पार्टी के जमीनी कार्यकर्ताओं की नाराजगी को भी एक बड़ी वजह मान रहे हैं. यहीं से हेमंत सोरेन को बल मिल रहा है क्योंकि इन पांच लोकसभा सीटों के उन तीस विधानसभा सीटों पर झामुमो या यूं कहें इंडिया गठबंधन यदि मजबूती से लड़ गया तो वाकई बीजेपी का सूपड़ा साफ हो सकता है.
अब बात करते हैं उन सीटों की जहां बीजेपी या एनडीए मजबूत है. वैसे तो शहरी क्षेत्र में बीजेपी का प्रदर्शन अपेक्षाकृत बढ़िया रहा है. मगर संथाल परगना और कोल्हान दो ऐसे क्षेत्र हैं जहां झामुमो आज भी मजबूत है. कोल्हान के एक सीट जमशेदपुर पूर्वी को छोड़ सभी सीटों पर पिछले विधानसभा चुनाव में झामुमो- कांग्रेस समर्थित प्रत्याशियों की जीत हुई थी. जमशेदपुर पूर्वी से निर्दलीय सरयू राय ने तत्कालीन मुख्यमंत्री रघुवर दास को भारी मतों के अंतर से हराकर ऐतिहासिक जीत दर्ज की थी. मजे की बात ये है कि चार साल बाद भी बीजेपी झारखंड के विधानसभा सीटों के लिए यह तय नहीं कर सकी है कि उनके संभावित प्रत्याशी कौन होंगे. न ही पार्टी यह तय कर सकी है कि झारखंड में उनका अगला सीएम चेहरा कौन होगा. बतौर प्रदेश अध्यक्ष बाबूलाल मरांडी फेल्योर हो चुके हैं. अर्जुन मुंडा खुद चुनाव हार चुके हैं और पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोड़ा जिनकी पत्नी गीता कोड़ा सिंहभूम संसदीय हार चुकी है. वर्तमान में बीजेपी के पास तीन- तीन पूर्व मुख्यमंत्री हैं, मगर तीनों को जनता नकार चुकी है. तो क्या पार्टी किसी नए चेहरे की तलाश में है. वैसे इसके लिए पार्टी आलाकमान ने केंद्रीय मंत्री और मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और असम के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा को जिम्मेदारी सौंपी है.
इसकी एक बड़ी वजह ये भी रही कि बीजेपी ने झारखंड में सशक्त विपक्ष की भूमिका निभा पाने में विफल रही. चाहे लिफाफा प्रकरण हो, कैश कांड हो या ईडी प्रकरण, हर मोर्चे पर बीजेपी यहां चुनी हुई सरकार को अस्थिर करने के एजेंडे पर काम करती रही. यहां दाद देनी होगी झामुमो की जिसने सभी मोर्चों पर मजबूती दिखाई और एकजुट होकर हर हमले को झेला और लागभग कार्यकाल पूर्ण करने जा रही है. बता दें कि इन साढ़े चार सालों में दो साल कोरोना काल भी रहा, जिसमें हेमंत सोरेन ने ऐतिहासिक काम करके सबको चौंका दिया. केंद्रीय जांच एजेंसी ईडी की कार्रवाई ने झारखंडी जनमानस को अंदर से झकझोर दिया और आदिवासी इसे अपनी अस्मिता से जोड़कर देखा इसी का नतीजा आज सबके सामने है. हेमंत सोरेन के जेल जाने के बाद उनकी पत्नी कल्पना सोरेन ने जिस अंदाज में सक्रिय राजनीति में एंट्री मारी उसने आग में घी डालने का काम किया. कल्पना सोरेन ने महज कुछ ही दिनों में एक परिपक्व राजनीतिज्ञ के रूप में अब खुद को स्थापित कर चुकी हैं. वे गांडेय की विधायक हैं और अब अगले विधानसभा चुनाव में पार्टी की स्टार कैम्पेनर भी होंगी. इसकी बानगी उन्होंने अपने पति की गैरमौजूदगी में दिखा दी है. अब हेमंत सोरेन बाहर आ गए हैं और उन्हें इसका लाभ भी मिलेगा. दोनों अब पार्टी को एकजुट करके अगले विधानसभा चुनाव में एकबार फिर से पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने की तैयारी में जुट गए हैं. वैसे हेमंत सोरेन के जेल जाने के बाद चंपाई सोरेन ने उनकी विरासत को बखूबी आगे बढ़ाया है. अब देखना यह दिलचस्प होगा कि झामुमो चंपाई सोरेन के लिए क्या भूमिका तय करता है क्योंकि चंपाई सोरेन ही पार्टी में एकमात्र ऐसा चेहरा है जो बेदाग और हरदिल अजीज नेता है. फिलहाल चंपाई सोरेन सूबे के मुखिया के तौर पर पार्टी की नैया और जनता का विश्वास दोनों को कायम रखने में सफल हो रहे हैं. अगला दो- तीन महीना झारखंड में राजनीतिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण होने वाला है. यहां यदि झामुमो- कांग्रेस और राजद गठबंधन संयम भरा फैसला लेने में सफल रहा तो निश्चय ही आगामी विधानसभा चुनाव में एकबार फिर से इंडिया गठबंधन को यहां सत्ता पर काबिज होने से कोई नहीं रोक सकता. वहीं विपक्ष यानी बीजेपी- आजसू को भी अब सरकार को अस्थिर करने के बजाय अपने जमीनी कार्यकर्ताओं पर भरोसा करने की जरूरत होगी. उन्हें सबसे पहले चेहरा तय करना चाहिए. आजसू के साथ गठबंधन का फार्मूला अभी से ही तय करके जनता को मैसेज देना चाहिए कि हम- साथ साथ हैं. क्योंकि पिछले विधानसभा चुनाव में आजसू के साथ गठबंधन नहीं होने का खामियाजा दोनों पार्टियां भुगत चुकी है. इसबार इनके समक्ष जेबीकेएसएस की चुनौती भी होगी.
ये लेखक के अपने विचार हैं