CENTRAL DESK देश में बेरोजगारी और महंगाई पर बड़ा बहस छिड़ा हुआ है. भले कुछ लोग इस मुद्दे से भटककर राष्ट्रवाद की हवा में बह रहे हैं. ये कितना सही है वही जानें. रुपए के मुकाबले डॉलर के कीमतों में बढोत्तरी को भले कुछ लोग नजरअंदाज कर रहे हैं, मगर अर्थव्यवस्था के जानकर मानते हैं कि इसका दूरगामी दुष्परिणाम मिलेगा.
आज देश का युवा चिंतित है, मगर वह जाए तो कहां जाए सोचने को विवश है. 2014 से लेकर 2022 के बीच देश में युवाओं के लिए कोई तटस्थ नीति नहीं बनी. पहला पांच साल घोषणाओं में बीत गया. अगले पांच में से दो साल कोरोना से लड़ने में बीता बाकी के तीन सालों का मुकम्मल एजेंडा तय नहीं है. मंदिर- मस्जिद, राष्ट्रवाद, राजनीतिक उठापटक, सत्ता हासिल करने की ललक, जांच एजेंसियों का खुला प्रयोग, सरकारी संस्थानों के निजीकरण को छोड़ देश में कुछ खास बदलाव होता अबतक नजर नहीं आया.
इन सबके बीच पिछले 10 साल से भी अधिक समय से चले आ रहे सहारा सेबी विवाद ने न्यायपालिका को भी सवालों के घेरे में लाकर खड़ा कर दिया है. सत्ता के खेल में फंसे सहारा समूह लाख दावे कर ले मगर इतना साफ हो गया है कि कानून से इंसाफ तभी मिलेगा जब केंद्र सरकार चाहेगी. क्योंकि वर्तमान सरकार को सत्ता दिलाने में सहारा समूह की 2014 में बड़ी भूमिका रही थी. तब तत्कालीन यूपीए सरकार के कार्यकाल में सेबी ने समूह पर फर्जी तरीके से निवेशकों से धन उगाही का आरोप लगाते हुए सुप्रीम कोर्ट में याचिका लगायी थी. जिसपर शीर्ष अदालत ने समूह के मुखिया सुब्रत रॉय को तलब किया था. राजनीतिक रसूख और देशभक्ति के रौब में रॉय ने शीर्ष अदालत के आदेशों को धत्ता बताते हुए पेशी से इंकार कर दिया था. इस वजह से नाराज सुप्रीम कोर्ट ने अदालत के आदेशों के अवमानना के आरोप में सुब्रत रॉय एवं उनके तीन सहयोगियों के खिलाफ गैर जमानती वारंट जारी कर दिया था. जिसके बाद सुब्रत रॉय पेशी के लिए जैसे ही कोर्ट पहुंचे शीर्ष कोर्ट ने 15 हजार करोड़ रुपए चुकाने का भारी- भरकम जुर्माना ठोंक दिया, जो किसी भी कारोबारी के लिए चुकाना संभव नहीं था. दुनिया के इतिहास में किसी भी व्यवसायिक समूह के लिए सबसे बड़ा जुर्माना लगाया गया था, जिससे पूरा उद्योग जगत स्तब्ध रह गया था. चूंकि निर्णय शीर्ष अदालत का था इसलिए इस निर्णय के खिलाफ किसी ने सहारा के प्रति खुलकर संवेदना व्यक्त नहीं किया. उधर सहारा प्रमुख सहित समूह के तीन अधिकारी हिरासत में ले लिए गए. इसके लिए समूह से जुड़े लाखों एजेंटों ने कांग्रेस को दोषी ठहराया और इसका बदला 2014 के चुनावों में लिया. जैसे ही नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने ऐसा लगा कि सहारा की मुश्किलें कम होंगी मगर साल दर साल बीतता गया 2012 से 2022 के बीच सहारा समूह को कानूनी झंझावातों में फंसकर भारी- भरकम नुकसान उठाना पड़ा है. देशभर में फैले सहारा समूह के पांच हजार से भी अधिक कार्यालयों में आज वीरानी छा गई है. करोड़ों निवेशकों को अपनी गाढ़ी कमाई डूबने का डर सताने लगा है. 12 लाख एजेंट और उनसे जुड़े आश्रितों के समक्ष अस्तित्व बचाने की चुनौती मुंह बाए खड़ी है. कई निवेशकों की पैसों के अभाव में मौत हो चुकी है. कई एजेंटों ने आत्महत्या कर ली है. सवाल यह उठता है कि आखिर एक व्यक्ति के गुनाहों की सजा पूरे समूह को क्यों ? जिस निवेशक को सेबी ने फर्जी बताकर कोर्ट में हलफनामा दायर किया, सड़क पर पैसों के लिए प्रदर्शन करने वाले निवेशक कौन हैं. शीर्ष अदालत को निवेशकों का दर्द आखिर नजर क्यों नहीं आ रहा ! सेबी को यह भी बताना चाहिए कि सहारा से मिले पैसों का क्या हुआ ? अबतक निवेशकों का भुगतान क्यों नहीं हुआ ? सरकार की पूरे मामले में चुप्पी कहीं सरकार के लिए भारी न पड़ जाए इसकी संभावना प्रबल हो चली है. क्योंकि मामला सड़क से सदन तक जा पहुंची है. आखिर शीर्ष अदालत इतने बड़े मामलों की सुनवाई करने से क्यों बच रहा है यह भी यक्ष प्रश्न है.
इधर शोशल मीडिया यूनिवर्सिटी के भ्रमजाल में फंसे निवेशक अभी भी पूरे मामले में दोषी सहारा को मान रहे हैं, जबकि पूरे प्रकरण में समूह दर्जनों बार अपनी बेबसी अखबारों में विज्ञापन के जरिए प्रकाशित कर चुका है. सहारा- सेबी विवाद इन दिनों देश का बड़ा मुद्दा बना हुआ है. कहीं ऐसा न हो कि वर्तमान केंद्र सरकार के लिए 2024 के चुनाव में सहारा और सहारा से जुड़े कार्यकर्ता और निवेशक बड़ी मुसीबत खड़ा कर दे.
फर्जी संगठनों की भरमार निवेशक रहें सावधान
सहारा- सेबी विवाद से उपजे हालात के बाद सोशल मीडिया यूनिवर्सिटी के जरिए भ्रम फैलाने वालों की संख्या दिनों दिन बढ़ती जा रही है. कोई खुद को सुप्रीम कोर्ट का वकील बताकर सहारा मामले की पैरवी करने की बात कर रहा है. कोई संगठन बनाकर चंदा वसूली में जुटा है. अपनी गाढ़ी कमाई वसूलने की आस लिए निवेशक इनके झांसे में फंस कर कानूनी लड़ाई लड़ने के नाम पर चंदा देकर फंस रहे हैं, जबकि यह पूरी तरह से गलत है. सहारा- सेबी विवाद का निपटारा शीर्ष कोर्ट से ही होना है. निवेशकों को शोशल मीडिया यूनिवर्सिटी के भ्रमजाल और फर्जी संगठनों के झांसे में आने से बचना चाहिए.
Reporter for Industrial Area Adityapur