ब्यूरो प्रमुख प्रमोद सिंह की सरायकेला से विशेष रिपोर्ट
भूमि से जन्मे भूमिपुत्र माने जाने वाले आदिवासी जनजाति के भूमिज समाज के लोग आज भी अपने मूल परंपराओं के साथ प्रकृति पूजक बने हुए हैं. इसके साथ ही समाज और परिवार में तेजी से आधुनिकता का समावेश भी देखा जा रहा है. जहां भूमिज समाज के मूल परिधान लाल पाड़ धोती और छापा साड़ी की जगह मॉडर्न शर्ट पैंट एवं फैशनेबल साड़ियों का पहनावा देखा जा रहा है. वही खानपान में भी समय के साथ परिवर्तन देखा जा रहा है.
जिले में तकरीबन 50 हजार भूमिज समाज की आबादी बताई जा रही है. जो आज भी अपने मूल परंपराओं के साथ बने हुए हैं, हालांकि भूमिज समाज पितृसत्तात्मक है, लेकिन महिलाएं सामाजिक निर्माण के लिए एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं. यद्यपि वह एक अलग स्थिति में रहती है, लेकिन सीमा एवं परंपराओं में भूमिज का धर्म पुरुष का धर्म है. महिलाओं को बलिदानों में उपस्थित होने की अनुमति नहीं दी जाती है, बशर्ते उन्हें पूर्वजों और परिवार के देवताओं के घर में पेश किया जाता है. अब भूमिज महिला की नागरिक स्थिति भी आधुनिकता के प्रभाव के साथ- साथ परिवर्तन से गुजर रही है. संथाल महिला विज्ञान, शिक्षा, कला और संस्कृति के क्षेत्र में अपनी नई पहचान प्राप्त कर रहे हैं. प्रामाणित भूमिज स्रोतों से भूमिज के बारे में बहुत कम जानकारी है. भूमिज जैसे कोई व्यापक अध्ययन उन पर नहीं किया गया है. भूमिज मोटे तौर पर स्लेश बर्न की खेती पद्धतियों का अभ्यास करते हैं और छोटे आयतन उपज एकत्र करके उनकी आय का पूरक करते हैं. भूमिज समाज में प्राथमिक शिक्षा का प्रसार अच्छा है, लेकिन उन्होंने उच्च स्तर की शिक्षा में बहुत प्रगति नहीं की है. गांव के लिए सबसे महत्वपूर्ण स्थल होता है अखड़ा और जाहेरथान. अखड़ा यानी सामुदायिक मिलन स्थल और जाहेरथान यानी, पूजा स्थल. जाहेरथान ऐसी जगह पर होते हैं जहां साल के पेड़ हों. मान्यता है कि साल के पेड़ जहां होंगे, वहां भूमिगत पानी का स्रोत मिलने की संभावना रहती है, इसलिए जाहेर थान ऐसे स्थल पर होते हैं जहां साल के पेड़ हों. हालांकि अब जाहेर थान को लेकर झारखंड के सभी आदिवासी समुदायों में प्रतिस्पर्धा की भावना रहती है. स्वशासन की प्रणाली आदिवासियों की खास पहचान होती है. भूमिज समुदाय में भी स्वशासन की अपनी प्रणाली होती थी. गांव का प्रधान यानी मुड़ा या मुंडा, डाकुआ यानी, डाकिया जो बैठक की सूचना देता था, नाया, यानी पुजारी, देवड़ी, यानी पुजारी का सहयोगी. यह व्यवस्था अपने हिसाब से चलती रही है.
भूमिजों की जीवन शैली और परंपरा
भूमिज समाज और संस्कृति के प्रति हमारे तथाकथित सुसंस्कृत समाज का रवैया क्या है ?
मनोरंजन के लिए ही लोग भूमिज समाज और सुसंस्कृति की ओर जाते रहे हैं. उनके जीवन और रीति- रीवाजों के बारे में गुदगुदाने वाले सनसनीखेज ब्योरे तो खूब मिलते हैं, पर उनके पारिवारिक जीवन की मानवीय व्यथा नहीं. उनके अलौकिक विश्वास, जादू- टोने और विलक्षण अनुष्ठानों का आंखों देख हाल तो मिलता है, उनकी जिंदगी के हर सिम्त हाड़तोड़ संघर्ष की बहुरूपी और प्रमाणिक तस्वीर नहीं. वे आज भी आदमी की अलग नस्ल के रूप में अजूबा की तरह पेश किए जाते हैं.
सरायकेला में भूमिज समाज का विशेष इतिहास भी रहा है
सरायकेला प्रॉपर में भूमिज समाज समाज के अग्रणी और बुद्धिजीवी जानकार प्रोफेसर अतुल सरदार बताते हैं कि सरायकेला क्षेत्र में भूमिज समाज का विशेष इतिहास रहा है. प्राचीन समय से ही मूल वाशिंदे के रूप में भूमिज समाज के लोग यहां रहते आ रहे हैं. जिनकी पहली पीढ़ी के रूप में किवदंती के अनुसार दो भाई दांतु मुंडा एवं गुटू मुंडा के नाम अग्रणी है. सरायकेला में रजवाड़ा की स्थापना के बाद कतिपय कारणों से अस्तित्व की रक्षा को लेकर दोनों ही भाई सरायकेला क्षेत्र से पलायन किए. जिनके नाम पर आज भी दो भूमिज बहुल गांव स्थापित है. जिसमें दांतु मुंडा के नाम पर दांतुडीह और गुटू मुंडा के नाम पर गुटूसाई गांव स्थापित है. सरायकेला क्षेत्र में उनके प्राचीन काल की उपस्थिति की पहचान भी प्रोफेसर अतुल बताते हैं. उक्त दोनों भाइयों के सरायकेला से पलायन के बाद किवदंती के अनुसार बाघ या भालू के हमले में उनके मारे जाने पर गुटूसाई गांव के बाहर प्राचीन पत्थर के साथ ता-दिरी आज भी देखी जा सकती है. जबकि दांतू मुंडा के दो पुत्रों नरसिंह मुंडा एवं वासुदेव मुंडा के नाम पर भी दो गांव नरसिंहपुर और बासुदेवपुर आज भी भूमिज परिवारों से उजागर हैं. प्रोफेसर अतुल बताते हैं कि बाद के समय में सरनेम मुंडा का परिवर्तन सरदार के रूप में हुआ. जिसमें आज अधिकांश भूमिज सरदार सरनेम के साथ जाने जाते हैं. उन्होने बताया कि भूमिजों के विभिन्न स्तरों के अनुरूप उनके विकास का खाका खींचना होगा. विश्व की इस महान लोक संस्कृति को संरक्षित व संविर्द्धत करने के लिए एक सामूहिक प्रयास की आवश्यकता है.
प्रकृति के पूजारी हैं भूमिज
प्रकृति की गोद में बसे झारखंड की अपनी एक अलग पहचान है. यहां विभिन्न जाति, भाषा और धर्म के लोग रहते हैं. जिनके परिधान, बोलचाल और रहन-सहन किसी जगह पर समान हैं, तो कहीं विभिन्नताएं भी हैं. झारखंड में आदिम जनजाति के लोगों का एक अलग स्थान है. भूमिज इन्हीं में से एक हैं. भूमिज झारखंड प्रदेश की एक प्रमुख आदिवासी जनजाति है. इस जनजाति का मूल स्थान यूं तो दक्षिणी छोटानागपुर है, लेकिन उत्तरी छोटानागपुर में भी ये लोग कहीं- कहीं मिल जाते हैं. आज के समय में भूमिज जनजाति के लोग झारखंड के लगभग सभी जिले में बसे हुए है.
भूमिज का खेती-बाड़ी है प्रमुख काम
आदिम भूमिज राजतंत्र में काफी सक्रिय थे. उस वक्त इनका प्रमुख कार्य खेती था. इतिहास के दौर से लेकर आजतक इस जनजाति के लोग एक कुशल कामगार और मजदूर होते हैं, लेकिन वक्त और हालात के साथ भूमिज समाज के लोगों ने भी अब खेती करने के अलावा दूसरे कामों में हाथ बढ़ाना शुरू कर दिया है. कोल्हान के सरायकेला-खरसावां जिले में भूमिज जनजाति के लोगों की संख्या बहुत ज्यादा है. जिले के कुचाई, दरभंगा और खरसावां ग्रामीण क्षेत्रों में ये लोग आदिम जमाने से ही रहते हैं.
प्रकृति प्रेमी के रूप में जाने जाते हैं भूमिज
आदिवासी और आदिम जनजाति के लोग प्रकृति के काफी करीबी होते हैं. भूमिज एक ऐसी जनजाति है, जिसे प्रकृति का रक्षक भी कहा जाता है. इसकी जानकारी इनकी सभ्यता और संस्कृति से ही पता चलता है. इनके सभी धार्मिक अनुष्ठानों में सबसे पहले प्रकृति की पूजा होती है. भूमिज जनजाति के लोगों का प्रमुख प्रकृति पर्व सरहुल है. भूमिजा जनजाति के लोग अपने जाहेर थान (पूजा स्थल) की रखवाली और देखरेख करते हैं. साल वृक्ष को ये लोग देवता मानते हैं. इस स्थान पर साल के बड़े- बड़े वृक्ष लगे होते हैं, जहां सरहुल के मौके पर पूरे विधि- विधान के साथ इनकी पूजा की जाती है.
प्रधानी व्यवस्था में थे शामिल
सालों पहले जब राजतंत्र हुआ करता था, तब मुंडा और भूमिज गांव में प्रधान के पद पर आसीन हुआ करते थे, लगभग सभी गांव में राजाओं द्वारा चलाए जा रहे प्रधानी व्यवस्था में भूमिज शामिल रहते थे.
झारखंड में कुल 32 जनजातियां रहती हैं. उनमें संथाल, उरांव, खड़िया आदि की तो चर्चा होती है, लेकिन एक प्रमुख जनजाति भूमिज की चर्चा कम होती है. हालांकि इनकी झारखंड में संख्या लाखों में है। 2001 की जनगणना के अनुसार 181329 और वर्तमान में विभिन्न स्रोतों के अनुसार झारखंड में इनकी आबादी चार लाख के आंकड़े को पार कर गई है. झारखंड के अलावा ओड़िसा, पश्चिम बंगाल में सघन रूप से रूप से है. इनका निवास स्थल तो मूल रूप से झारखंड का और उससे सटे ओड़िसा व पश्चिम बंगाल के क्षेत्र हैं. आदिवासी जनजातियों के रहन- सहन, पर्व त्योहारों व जीवन दृष्टि में एक तरह का साम्य है, लेकिन करीब से देखने पर इनके बीच के भेद को समझना कठिन नहीं. भूमिजों और संथालों के जीवन शैली में तो इस कदर साम्य है कि उनमें अंतर करना कभी कभी मुश्किल हो जाता है. लेकिन अंतर है और बहुत गहरा अंतर है. और इतिहास की रोचक, मगर भूल भुलौयों जैसी गलियों से निकलने के लिए इन अंतरों को रेखांकित करना जरूरी हो जाता है. भूमिज अपने पूर्वजों के अस्थियों को घर के आंगन या दरवाजे पर गाड़ते है. उसे सासिंदरी कहा जाता है. इसके अलावा एक खड़े पत्थर पर मृतक के बारे में जानकारी लिखी जाती है जिसे हम निशानदिरी कहते है.
विशेष है भूमिज समाज का परंपरागत खानपान
भूमिज समाज के मूल भोजन के रूप में पकाए हुए चावल भात एवं इमली की चटनी के रूप में बताई जाती है. यही कारण है कि भूमिज परिवारों के प्राचीन आधिवासो की पहचान इमली के पेड़ों के बहुतायत के आधार पर की जाती है. यानी जिस स्थान पर भूमिज परिवारों का निवास है वहां इमली के पेड़ बड़ी मात्रा में पाए जाते हैं. जिसमें इमली के तरह-तरह के सामग्री बनाकर भात के साथ खाए जाने की मूल परंपरा रही हैं. परंतु समय और संपन्नता के साथ इसमें परिवर्तन आया है. अब विभिन्न अवसरों पर और आयोजनों के समय मॉडर्न फूड के साथ रोटी का चलन भी बड़ा है.
पहनावा भी बदला है
भूमिज परिवारों में पुरुष के लिए लाल पाड़ वाली धोती और महिलाओं के लिए छापा साड़ी के मूल परिधान के स्थान पर आज सामर्थ्य के अनुसार परिवारों में मॉडर्न ड्रेसों का चलन हुआ है. बावजूद इसके वृद्ध जनों में और परंपरागत उत्सव त्योहारों के अवसर पर भूमिज परिवार मूल परिधानों में ही नजर आते हैं. मूल परिधानों में भूमिज परिवार का जादुर नाचो सरहुल और बाहा त्योहारों के दौरान आज भी अपने आप में अनुपम बना हुआ है.
पूजा परंपरा है विशेष
भूमिज परिवारों की पूजा परंपरा की प्रमुख विशेषताएं सामूहिक सामाजिक आयोजन के रूप में है. जिसमें देशाऊली और गोरामधान में सामायिक पूजा का आयोजन किया जाता है. जिसमें परिवार और समाज के सभी सदस्य एक साथ शामिल होते हैं. इसमें माघ पूजा, सरहुल, बुरु पूजा, करम बोंगा, सागे पूजा जैसे पूजन परंपराओं का विधान है.
भूमिज समाज की है वीरगाथा
वीर माटी के कहे जाने वाले भूमिज समाज के अग्रणी में वीर शहीद गंगा नारायण सिंह रहे हैं. जिन्होंने अंग्रेजों से लोहा लेने के लिए सरदार सेना वाहिनी तैयार की थी. इसी प्रकार प्रबुद्ध बुद्धिजीवी में स्वर्गीय रामदयाल मुंडा अग्रणी रहे हैं. इनके अलावा भी भूमिज समाज के कई अग्रणी नेतृत्वकर्ताओं ने सामाजिक बदलाव और राष्ट्रप्रेम को लेकर संघर्ष के नारे बुलंद किए हैं.