सरायकेला (Pramod Singh) 1 जनवरी 1948 को जब आज़ाद भारत अपने पहले नए साल की पहली तारीख़ का जश्न मना रहा था, तब बिहार का खरसावां (अब झारखण्ड) अपना ख़ून अपनो द्वारा बहवा रहा था. 1 जनवरी 1948 को खरसावां हाट में 50 हज़ार से अधिक आदिवासियों की भीड़ पर ओड़िशा मिलिट्री पुलिस ने अंधाधुंध फायरिंग की थी, जिसमें कई आदिवासी मारे गये थे.
आदिवासी खरसावां को ओड़िशा में मिलाये जाने का विरोध कर रहे थे. आदिवासी खरसावां को बिहार में शामिल करने की मांग कर रहे थे. खरसावां में एक जनवरी को गोलीकांड या हत्याकांड सुनते ही हमें जालियांवाला बाग याद आता है, जहां ब्रिटिश सरकार ने निहत्थे लोगों पर अंधाधुंध गालियों बरसाई थी. इस गोलीकांड में दो हजार लोग शहीद हुए थे, जबकि खरसावां गोलीकांड में शहीदों की संख्या इससे पांच गुणा अधिक थी. हमने स्कूलों के पाठ्यक्रम में जालियांवाला बाग गोलीकांड के विषय पर बहुत कुछ पढ़ा है, इसलिये यह हमारे जेहन में है. परंतु खरसावां गोलीकांड के विषय को किसी भी सरकार ने बच्चों की पुस्तकों में पाठ्यक्रम के रुप में प्रस्तुत करने की जरुरत नहीं समझी. क्योंकि यह आदिवासियों से जुड़ी गोलीकांड का मामला है.
सदियों से आदिवासियों की पहचान धूमिल करने की कोशिशें होती रही है. एक जनवरी 1948 गुरुवार को खरसावां हाट मैदान में 50 हजार से अधिक आदिवासियों की भीड़ पर ओड़िशा की पुलिस ने आदिवासियों पर अंधाधुंध गोलियां चलाई थी, जिसमें हजारों आदिवासी मारे गये थे. आदिवासी खरसावां को ओड़िशा में विलय किये जाने का विरोध कर रहे थे और खरसावां को बिहार में शामिल करने की मांग कर रहे थे. आजादी के बाद खरसावां गोलीकांड देश का सबसे बड़ा गोलीकांड माना जाता है. प्रत्यक्षदर्शियों और पुराने बुजुर्गो की मानें तो एक जनवरी 1948 को खरसावां हाट मैदान में हुए गोलीकांड स्वतंत्र भारत के इतिहास में एक काला अध्याय बन गया. स्वतंत्रता के बाद जब राज्यों का विलय जारी था तो बिहार व उड़ीसा में सरायकेला व खरसावां सहित कुछ अन्य क्षेत्रों के विलय को लेकर विरोधाभास व मंथन जारी था. ऐसे समय में क्षेत्र के आदिवासी अपने को स्वतंत्र राज्य या प्रदेश में रखने की इच्छा जाहिर कर रहे थे. इसी पर सर्वसम्मति व आंदोलन को लेकर एक जनवरी 1948 को खरसावां हाट मैदान पर विशाल आम सभा आहुत की गई थी. तत्कालीन आदिवासी नेता जयपाल सिंह समय पर सभा स्थल पर नहीं पहुंच पाए जिससे भीड़ तितर- बितर हो गई थी. सामने ही खरसावां राजमहल की सुरक्षा में तैनात ओड़िशा सरकार की फौज ने उन्हें रोकने का प्रयास किया. भाषाई नासमझी, संवादहीनता या सशस्त्र बलों की धैर्यहीनता का मामला चाहे कुछ भी रहा हो आपसी विवाद बढ़ता गया. पुलिस ने गोलियां चलानी शुरू कर दी. पुलिस की गोलियों से कितने लोग मारे गए, कितने हताहत हुए इसका वास्तविक आंकड़े का रिकार्ड आज तक नहीं मिल पाया है.
प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार पुलिस ने भीड़ को घेर कर बिना कोई चेतावनी दिए निहत्थे लोगों पर गोलियां चलानी शुरु कर दीं. 15 मिनट में कईं राउंड गोलियां चलाई गईं. खरसावां के इस ऐतिहासिक मैदान में एक कुआं था, भागने का कोई रास्ता नहीं था. कुछ लोग जान बचाने के लिए मैदान में मौजूद एकमात्र कुएं में कूद गए. देखते ही देखते वह कुआं लाशों से पट गया. गोलीकांड के बाद जिन लाशों को उनके परिजन लेने नहीं आये, उन लाशों को उस कुआं में डाला गया और कुआं का मुंह बंद कर दिया गया. जहां पर आज शहीद स्मारक बनाया गया हैं. इसी स्मारक पर एक जनवरी को आदिवासी परंपरा के अनुसार पुष्प और तेल डालकर शहीदों को श्रदांजलि अर्पित की जाती है.
महिलाओं, पुरूषों और बच्चों के पीठ पर दागी गयी थी गोलियां
महिला, पुरूषों के अलावा बच्चों की पीठ पर भी गोलियां दागी गयीं. यहां तक कि घोड़े, बकरी और गाय भी इस खूनी घटना के शिकार हुये. गोलियां चलने के बाद पूरे बाजार मैदान में मरे हुए लोगों के शव बिछ गये थे और साथ ही वहां कई घायल भी गिरे पड़े थे और घायलों को उड़ीसा सरकार के सैनिक ने चारों ओर से घेर रखा था. सैनिकों ने किसी भी घायल को वहां से बाहर जाने नहीं दिया और ना ही घायलों की मदद के लिए किसी को अंदर आने की अनुमति नहीं ही दी गई. घटना के बाद शाम होते ही उड़ीसा सरकार के सैनिकों की ओर से बड़ी ही निर्ममता पूर्वक इस नरसंहार के सबूत को मिटाना शुरू कर दिया गया था. सैनिकों ने शव को एकत्रित किया और उसे लगभग 10 ट्रकों में लादकर ले गये और सारंडा के बिहड़ों में फेंक दिया. वहीं इस घटना में महिला, पुरुष एवं बच्चों का बेरहमी से नरसंहार किया गया. घायलों को सर्दियों की रात में पूरी रात खुले में छोड़ दिया गया और उन्हें पानी तक नहीं दिया गया. इसके बाद उड़ीसा सरकार ने बाहरी दुनिया से इस घटना को छुपाने की भरपूर भी कोशिश की. उड़ीसा सरकार नहीं चाहती थी कि इस नरसंहार की खबर को बाहर जाने दें और इसे रोकने की पूरी कोशिश की गई. यहां तक कि बिहार सरकार ने घायलों के उपचार के लिये चिकित्सा दल और सेवा दल भी भेजा, जिसे वापस कर दिया गया.
अब तक सिर्फ दो शहीदों के आश्रीतों को मिला है सम्मान
खरसावां गोली कांड को हुए 73 साल गुजर गये, परंतु इस गोली कांड के शहीदों की पहचान नहीं हो सकी. दो को छोड़ अन्य शहीदों के आश्रितों को सरकारी स्तर पर सम्मान भी नहीं मिल सका. 2015 में मुख्यमंत्री बनने के बाद खरसावां पहुंचे रघुवर दास ने शहीदों के आश्रितों की पहचान कर एक- एक लाख रुपये की सम्मान राशि देने की घोषणा की थी. इसके पश्चात वर्ष 2016 में खरसावां गोलीकांड के दो शहीद महादेव बुटा (खरसावां) के सिंगराय बोदरा व बाईडीह (कुचाई) के डोलो मानकी सोय के आश्रितों को सम्मान के रूप में एक- एक लाख रुपये की राशि दी गयी.
दुबारा नहीं आए रघुवर
एक जनवरी 2017 को तत्कालीन मुख्यमंत्री रघुवर दास खरसावां शहीद स्थल पहुंचे. जहां कुछ आदिवासी संगठनों ने उनपर शहीदों का अपमान करने का आरोप लगाते हुए उनके ऊपर जूते- चप्पल उछाले, कुछ जूते- चप्पल उनके शरीर पर भी जा लगे. अचानक शहीद स्थल पर भगदड़ की स्थिति होता देख रघुवर दास ने संयम का परिचय दिया और कार्यक्रम स्थल से अपमानित होकर चले गए फिर दुबारा मुख्यमंत्री रहते या अबतक खरसावां शहीद स्थल का रुख नहीं किया. आजाद भारत के इतिहास में यह काला अध्याय भी इसी शहीद स्थल से जुड़ा है. जहां राज्य के मुख्यमंत्री पर जूते- चप्पलों की बरसात की गई.
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Reporter for Industrial Area Adityapur